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भगवद्गीता को सूक्तियों
दो सौ तिहत्तर ४३. अपने आप ही अपना उदार करो, अपने आप को नीचे न गिरामओ,
क्योकि यह मनुष्य आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ।
४४. जिसने अपने आप से अपने आपको जीत लिया है, उसका अपना आत्मा
ही अपना बन्धु है।
४५. हे अर्जुन । जो बहुत अधिक खाता है या विल्कुल नहीं खाता, जो बहुत
सोता है या बिल्कुल नही सोता-सदा जागता रहता है, उसकी योग
साधना सिद्ध नहीं हो सकती। ४६. जिस का आहार-विहार ठोक (अति से रहित, यथोचित) है, जिसकी
चेष्टाए -क्रियाएं ठीक हैं, जिसका सोना-जागना ठीक है, उसी को यह
दुःखनाशक योग सिद्ध होता है । ४७ अनन्त चैतन्य को व्यापक चेतना से युक्त योगी अपने आप को सब में
तथा सब को अपने आप में देखता है, वह सर्वत्र समदर्शी होता है।
४८. हे अर्जुन | अपने-जैसा ही सुख तथा दुःख को जो सब प्राणियो मे समान
भाव से देखता है अर्थात् अपने समान ही दूसरो के सुख दुख की अनुभूति करता है, वही परमयोगी माना जाता है। हे महाबाहो ! इस मे सन्देह नही कि मन बडा चचल है, इसका निग्रह कर सकना कठिन है। किन्तु हे कुन्तीपुत्र | अभ्यास (एकाग्रता की सतत साधना) और वैराग्य (विषयो के प्रति विरक्ति) से यह वश मे आ
जाता है। ५०. हे तात | शुभ कर्म करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नही होता ।
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५१. विद्याओ मे अध्यात्म पद्या ही सर्वश्रेष्ठ है ।
५२. हे पाण्डव ! ओ सभी प्राणियो के प्रति निर्वैर विर से रहित) है, वही
मुझे प्राप्त कर सकता है।