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महाभारत को सूक्तियां
दो सौ उनपचास ३४. जब अत्याचारी पापी मनुष्य को कही कोई रोकने वाला नहीं मिलता,
तब बहुत बड़ी सस्या मे मनुष्य पाप करने लग जाते हैं ।
३५. जो मनुष्य शक्तिमान् एव समर्थ होते हुए भी जान बूझ कर पापाचार
को नहीं रोकता, वह भी उमी पापकर्म से लिप्त हो जाता है।
३६ अपने आप को कुलीन मानने वाला कौन ऐसा मनुष्य है, जो जिस वर्तन
में खाए, उसी मे छेद करे--अर्थात् अपने उपकारी का ही अपकार करे ।
३७. यदि बडा ही आने वाले भय और उसमे बचने का उपाय न जाने, तो
फिर छोटा करेगा ही क्या ? ३८ (नारद ने युधिष्ठर जी से कहा कि) राजन् । क्या तुम्हारा धन तुम्हारे
परिवार, समाज और राष्ट्र के कार्यों के निर्वाह के लिए पूरा पड़ जाता है ? क्या धर्म मे तुम्हारा मन प्रसन्नतापूर्वक लगता है ? क्या तुम्हे और तुम्हारे राष्ट्र को इच्छानुसार सुख-भोग प्राप्त होते है ? क्या सत्कर्म मे लगे हुए तुम्हारे मन को कोई आघात या विक्षेप तो नहीं
पहुंचता है ? ३६ धन का फल दान और भोग है।
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४० शास्त्र ज्ञान का फल है-शील और सदाचार ।
४१ मन और आँखो के खो देने पर मनुष्य का जीवन कैसा शून्य हो जाता
४२. जो निर्बल है, वह सर्वगुणसम्पन्न होकर भी क्या करेगा? क्योकि सभी
गुण पराक्रम के अगभूत वन कर ही रहते हैं। ४३ ब्राह्मणो मे वही पूजनीय समझा जाता है, जो ज्ञान मे बडा होता है।
और क्षत्रियो मे वही पूजा के योग्य माना जाता है, जो बल मे सबसे अधिक होता है।