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भगवदगीता को सूक्तिया
दो सो उनहत्तर २३. जो कर्मेन्द्रियो को तो कर्म करने से रोक लेता है, किन्तु उनके विषयो
का मन से स्मरण करता रहता है, उसका वह 'आचार' मिथ्याचार
कहलाता है। २४. तू शास्त्रविहित कर्तव्य कम अवश्य कर, क्योकि कम न करने से कर्म
करना ही श्रेष्ठ है । विना कर्म किए तो तेरी शरीर यात्रा भी नहीं चल सकती।
२५ निःस्वार्थ भाव से परस्पर एक दूसरे को उन्नति चाहने वाले, आदर
सत्कार करने वाले ही परम कल्याण को प्राप्त होगे । २६. जो यज्ञ से अर्थात् अपने न्याय प्राप्त भोजन मे से दूसरो को यथोचित दान
करने से अवशिष्ट (वचा हुआ) खाते है, वे श्रेष्ठपुरुष सब पापो से मुक्त हो जाते है । और जो केवल अपने लिए ही पकाते है,साथियो को दिए विना
अकेले ही खाते हैं, वे पापी लोग तो इस प्रकार कोरा पाप ही खाते हैं । २७. अनासक्त रह कर कर्म करने वाला पुरुष परम पद को प्राप्त होता है।
२८. श्रेष्ठजन जो भी-जैसा भी माचरण करते है, इतर जन भी वैसा ही
आचरण करते हैं । वे जिस बात को प्रामाणिक एवं उचित मानते हैं,
दूसरे लोग उन्ही का अनुकरण करते हैं। २९. जो मनुष्य कम मे अकर्म को और अकर्म मे कम को देखता है, वही मनुष्यो
मे बुद्धिमान है, योगी है, और सब कुशल कर्मों का वास्तविक कर्ता है।
[निष्काम कर्म वस्तुतः अकर्म ही है, सकाम अकर्म मूलत कर्म ही है ।] __ ३० जिसके सभी विहित कर्तव्य कर्म काम-सकल्पो से रहित होते हैं, जिसके
सभी सकाम कर्म ज्ञानाग्नि मे जल गए हैं, उस महान् आत्मा को ज्ञानी
जन भी पण्डित कहते हैं। ३१. जो यथालाभ-सत्तोषी है, जो शीतोष्ण आदि द्वन्द्वो से विचलित नही होता,
जो मत्सररहित है, हर्ष-शोक से रहित होने के कारण जिसके लिए सफला-विफलता दोनो बराबर हैं, वह कर्मयोगी कर्म करता हुमा भी
उनसे नही बंधता । ३२. हे अर्जुन | द्रव्यमय यज्ञो से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है ।