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भगवद्गीता को सूक्तियो
दो सौ सडसठ
१५. प्रमथन-स्वभाव वाली बलवान् इन्द्रियां कभी-कभी प्रयत्नशील साधक के
मन को भी बलात् विषयो को ओर खीच ले जाती हैं।
विषयो का चिन्तन करने वाले पुरुष का उन विषयो में संग (मासक्ति, राग) हो जाता है, संग से ही उन विषयो को पाने की कामना होती है, और कामना होने से हो (समय पर अभीष्ट विषयो की प्राप्ति न होने पर) क्रोध (क्षोम) पैदा होता है ।
१७ क्रोध से अत्यन्त मूढता पैदा होती है, मूढता से स्मृतिविभ्रम हो जाता
है, स्मृतिविभ्रम से बुद्धि का नाश होता है । और बुद्धि का नाश होने
पर यह मनुष्य नष्ट हो जाता है, अपनी उच्च स्थिति से गिर जाता है। १८. चित्त प्रसन्न होने पर ही सव दु.खो का नाश होता है । चित्त प्रसन्न होने
से ही बुद्धि प्रतिष्ठित अर्थात स्थिर होती है ।
१६. जो युक्त (योगाभ्यासी, विजितेन्द्रिय) नही है, उसे बुद्धि (ज्ञान) की प्राप्ति
नही होती । अयुक्त (योग की साधना से रहित) व्यक्ति मैत्री, प्रमोद करुणा और माध्यस्थ्य भावनाओ से भी रहित होता है । जो भावनाओं से रहित होता है, उसे शान्ति नही मिलती । और जो अशान्त है ; उसे
सुख कैसे मिल सकता है ? २०. सर्वसाधारण प्राणी जिसे रात समझते हैं और सोते रहते हैं, उस समय
सयमी मनुष्य जागता रहता है । और जिस समय सामान्य मनुष्य जागते हैं, वह तत्त्वज्ञ साधक के लिए रात है । अर्थात् ज्ञानी जिस सासारिक सुख को दु.ख कहते हैं, उसे ही अज्ञानी ससारी जीव सुख कहते हैं । और जिसे अज्ञानी जीव सुख कहते हैं, उसी
सासारिक सुख को ज्ञानी दुःख कहते हैं । २१. जो पुरुष सभी कामनाओ का परित्याग कर स्पृहारहित, ममतारहित
तथा अहंकाररहित होकर जीवन व्यतीत करता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है।
२२. निश्चय से कोई भी व्यक्ति क्षणमात्र भी विना कम किये नही रहसकता।