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भगवद्गीता की सूक्तियां
दो सौ पैंसठ
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६ जिसने जन्म ग्रहण किया है, उसका मरण निश्चित है तथा जिसका मरण है उसका जन्म निश्चित है । अत जो अवश्यम्भावी है, अनिवार्य है, उस विषय मे सोच-फिक्र करना योग्य नही है ।
७ हे अर्जुन । वेदो का तो मत्त्व, रजस्, तमस् - प्रकृति के इन तीन गुणो का ही विषय है, इसलिए तू तोनो गुणो की सीमा को लांघ कर त्रिगुणातीत ( शुद्ध ब्रह्म) होजा ।
८. तेरा अधिकार मात्र कर्म करने मे ही है, कर्मफल मे कभी नही । मतः तू कर्म-फल के हेतु से कर्म करने वाला न हो । साथ ही तेरी अकर्म मे - कर्म न करने मे भी आसक्ति न हो ।
६. समत्व ही योग कहलाता है । अर्थात् हानि लाभ, सुख दुःख आदि मे समभाव रखना, विचलित न होना ही वास्तविक योग है ।
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समत्वबुद्धि से युक्त होने पर मनुष्य दोनो ही प्रकार के शुभाशुभ ( पुण्य और पापरूप) कर्मों के बन्धन से छूट जाता है । इसलिए हे अर्जुन तू समत्वरूप ज्ञानयोग मे लग जा, समभाव के साथ कुशल कर्मों मे कुशल होने का नाम ही योग है । ११. हे अर्जुन ! जव साधक मन
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त्याग देता है, और मात्मा से अपने आप मे मगन रहता है, है ।
उत्पन्न होने वाली सभी कामनाओ को आत्मा मे ही सन्तुष्ट रहता है- अर्थात् तो वह स्थितप्रज्ञ (स्थिरचित्त ) कहलाता
१२. जो कभी दुख से उद्विग्न नही होता, सुख को कभी स्पृहा नही करता, श्रीर जो राग, भय एवं क्रोध से मुक्त है, वही ज्ञानी स्थितप्रज्ञ कहलाता है ।
१३. कछुआ सब ओर से अपने श्रगो को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब साधक सासारिक विपयो से अपनी इन्द्रियो को सब प्रकार से समेट लेता है - हटा लेता है, तो उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित हो जाती है ।
१४. निराहार रहने पर इन्द्रिय- दौर्वल्य के कारण साधक को विषयो के प्रति तात्कालिक पराङ्मुखता -- उदासीनता तो प्राप्त हो जाती है, परन्तु उन विषयो का रस ( राग, मासक्ति) नही छूटता है, वह अन्दर मे बना ही रहता है । वह रस तो रागद्व ेप से विमुक्त परम चैतन्य के दर्शन से छूटता है ।