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वाल्मीकि रामायण की सूक्तिया
दो सौ इकत्तीस
१६. हा
जितने भी मचय (संग्रह) हैं, वे सब एक दिन क्षय हो जाते है, उत्णन पतन में बदल जाते हैं । इसी प्रकार संयोग का अन्त वियोग मे और जीवन का अन्त मरण में होता है ।
१७. जो रात गुजर जाती है, वह फिर कभी लौट कर नहीं आती।
१८. मृत्यु मनुष्य के साथ ही चलतो है, साय ही बैठती है, अर्थात् वह हर
क्षण साथ लगी रहती है, पता नहीं, कब दबोच ले ।
१६. प्राणी अकेला ही जन्म लेता है, और अन्त मे अकेला ही मर जाता है,
अर्थात् कोई किसी का साथी नही है ।
२० जो पुरुष मर्यादा एव चरित्र मे हीन होते हैं, वे सज्जनो के समाज मे
आदर नही पाते ।
२१.
कुलीन तथा अकुलीन, वीर तथा डरपोक, पवित्र तथा अपवित्र पुरुष अपने आचरण ही से जाना जाता है ।
२२ ससार मे सत्य ही ईश्वर है, सत्य मे ही सदा धर्म रहता है, सत्य ही सव
अच्छाइयो की जड है, सत्य से बढकर और कुछ नहीं है ।
२३ मानवजीवनरूप इस कर्मभूमि को प्राप्त कर मनुष्य को शुभ कर्म ही
करना चाहिए।
२४. धर्म से ही अर्थ (ऐश्वर्य) मिलता है, धर्म से ही सुख मिलता है, और
धर्म से ही अन्य जो कुछ भी अच्छा है वह सब मिलता है । धर्म ही विश्व का एक मात्र सार है ।
२५ लोगो को कष्ट देने वाला, क्रूरकर्मा पापाचारी शासक, चाहे त्रिभुवन का
एकछत्र सम्राट ही क्यो न हो, वह अधिक काल तक टिक नही सकता।