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वाल्मीकि रामायण को सूक्तियां
दो सौ उनचालीस ५६. स्वजन (अपना सार्थ) यदि निगुण है तब भो वह अच्छा है, क्योकि वह
अपना है । पर (पराया) तो आखिर पर ही होता है। ६०. दूसरो का धन चुराना, परस्त्रियो की ओर ताकना और मित्रो के प्रति
मविश्वास करना-ये तीनो दोष मानव को नष्ट करने वाले हैं।
६१ जो अपने कर्तव्यो को अन्त तक पार (पूरा) कर देता है, वही वास्तव मे
बुद्धिमान् है । ६२. सत्यवादी लोग अपनी प्रतिज्ञा को कभी मिथ्या नहीं होने देते ।
६३ वर-विरोध जीते-जी तक रहते है ।
६४ शुभ (सत्कम) करने वाला शुभ (शुभ फल) पाता है, और पाप करने
वाला पाप (अशुमफल) पाता है । ६५ सच्चरित्र ही सन्तो का भूपण है ।
६६ जो प्राप्त अपमान का अपने तेज द्वारा परिमार्जन नहीं करता, उसके
चेतनाहीन महान् पौरुप का भी क्या अर्थ है ?
६७ (रावण को ब्रह्मा से याचना)-भगवन् ! प्राणियो को मृत्यु के समान
दूसरा भय नहीं है, न ही ऐसा कोई दूसरा शत्रु है । अत मैं आपसे
अमरत्व की याचना करता हूँ।" ६८ धर्म मे निष्ठा रखने वालो के लिए ससार मे कुछ भी दुलंभ नही है ।
६६ राजा जैसा आचरण करता है, प्रजा उसी का अनुसरण करती है ।
७० (मनु ने अपने पुत्र ईक्ष्वाकु से कहा)-तू दण्ड द्वारा प्रजा की रक्षा कर,
किंतु बिना कारण किसी को भी दण्ड मत दे।