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वाल्मीकि रामायण को सूक्तिया
दो सौ संतीस ४८. मन को विषादग्रस्त न होने दो, इससे अनेक दोष पैदा होते हैं । विषाद
ग्रस्त मन पुरुष को वैसे ही नष्ट कर डालता है, जैसे कद्ध हुमा सर्प
अबोध बालक को। ४६ विशुद्ध हृदय वाले सज्जनो की बुद्धि कभी मन्द (कर्तव्यविमूढ) नहीं होती।
५० क्रोध से उन्मत्त हुआ मनुष्य कौन-सा पाप नही कर डालता, वह अपने
गुरुजनो की भी हत्या कर देता है। ५१. क्रोधी के सामने अकार्य (नही करने योग्य) और अवाच्य (नही बोलने
योग्य) जैसा कुछ नहीं रहता । र्यात वह कुछ भी कर सकता है और
बोल सकता है। ५२ (विभीषण का रावण के प्रति कथन) राजन् । ससार मे प्रिय वचन
बोलने वाले तो बहुत मिलते है, किन्तु हितकारी (पथ्य) अप्रिय वचन
कहने वाले और सुननेवाले दोनो ही मिलने दुर्लभ हैं । ५३. केवल ब त बनाने से कोई बडा आदमी नही बन सकता ।
५४. कर्म कर के अपना परिचय दो, न कि मु ह से वडाई हाक कर । जिसमे
पौरुष है, वही वस्तुत. वीर कहा जाता है।
५५ जो धर्म मनुष्य को अनर्थों (कष्टो या विकारो) से रक्षा नही कर सकता,
वह धर्म निरर्थक है। ५६. (लक्ष्मण का राम के प्रति कथन) दुर्वल एव मर्यादाहीन व्यक्ति का सग
नहीं करना चाहिए। ५७. (लक्ष्मण ने राम से कहा) हे राघव | जो धर्म, अधर्म पर आधारित है
वह मनुष्य को नष्ट कर देता है। धनहीन होने से मनुष्य की बुद्धि कुण्ठित हो जाती है और उसकी सब शुभ प्रवृत्तियां वैसे ही क्षीण होती जाती हैं जैसे ग्रीष्म काल मे छोटी नदियाँ।
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