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महाभारत को सूक्तिया
दो सौ तेतालीस
५. जो लोग विभक्त होकर आपस मे फूट पैदा कर लेते हैं, उनका शीघ्र
ही ऐमा विनाश होता है, जिसकी कही तुलना नहीं होती। ६. संकट से बचने के लिए उत्तरोत्तर अधर्म करते जाने की प्रवृत्ति सम्पूर्ण
जगत् का नाश कर डालती है।
७ उद्विग्न पुरुप न धर्म का आचरण कर सकता है, और न किसी लौकिक
कर्म का ही ठीक तरह सम्पादन कर सकता है।
८. जिनमे क्षमा है, उन्ही के लिए यह लोक और परलोक-दोनो कल्याण
कारक हैं।
६. जो स्वय अपनी मात्मा का तिरस्कार करके कुछ का कुछ समझता है
और करता है, स्वयं का अपना आत्मा ही जिसका हित साधन नही __ कर सकता है, उसका देवता भी भला नही कर सकते ।
१०. भार्या (धर्मपत्नी) पुरुष का प्राधा अंग है । भार्या सबसे श्रेष्ठ मित्र है ।
११. मूर्ख मनुष्य परस्पर वार्तालाप करने वाले दूसरे लोगो को भली-बुरी बातें
सुनकर उनसे दुरी बातो को ही ग्रहण करता है, ठीक वैसे ही, जैसे मूअर अन्य अच्छी खाद्य वस्तुमओ के होते हुए भी विष्ठा को ही अपना भोजन बनाता है।
१२. विद्वान् पुरुप दूसरे वक्तामो के शुभाशुभ वचनो को सुनकर उनमे से
अच्छी बातो को ही अपनाता है, ठीक वैसे ही, जैसे हम मिले हुए दुग्ध
जल मे से पानी को छोडकर दूध ग्रहण कर लेता है । १३ सत्य के समान कोई धर्म नहीं है, मत्य मे उत्तम कुछ भी नही है । और
झूठ से बढ कर तीव्रतर पाप इस जगत मे दूसरा कोई नही है ।
१४. विषयभोग की इच्छा विषयो का उपभोग करके कभी शान्त नही हो
सकती। घी की आहुति डालने पर अधिकाधिक प्रज्वलित होने वाली आग की भांति वह भी अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है ।