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वाल्मीकि रामायण की सूक्तियां
दो सौ पैंतीस
३५. बडा भाई, जन्म देने वाला जनक और विद्या देने वाला गुरु-धर्म मार्ग
पर चलनेवाले इन तीनो को पिता ही समझना चाहिए ।
३६. उपकार करना मित्र का लक्षण है, और अपकार करना शत्रु का
लक्षण है। ३७. भय से प्रायः सभी डरते हैं ।
३८. दुखी हो या सुखी, मित्र की मित्र ही गति है ।
३६. राजा को स्वेच्छाचारी नही होना चाहिए ।
४०. जो अपने पाप का प्रायश्चित्त कर लेते हैं, उनके पाप शान्त (नष्ट) हो
जाते हैं। ४१ जो स्वयं शोचनीय स्थिति मे है, वह दूसरो का क्या सोच (चिन्ता) करेगा?
४२ काल (मृत्यु) किसी का बन्धु नही है ।
४३ जो आयं धर्म (विवेक) से क्रोध का नाश कर देता है, वही वीर है, वही
वीरो मे श्रेष्ठ है। ४४. जो मनुष्य अपने मित्रो से मिथ्या प्रतिज्ञा (झूठा वादा) करता है, उससे
अधिक कर और कौन है ? ४५. गोघातक, मदिरा पीनेवाले, चोर और व्रतभग करनेवाले की शुद्धि के
लिए तो सत्पुरुषो ने प्रायश्चित बताये हैं, परन्तु कृतघ्न का कोई
प्रायश्चित्त नही है। ४६. मद्यपान से धन, काम (गृहस्थ जीवन) एवं धर्म की हानि होती है।
४७. कामान्ध मनुष्य अपने देशकालोचित यथार्थ कर्तव्यो को नही देख
पाता है।