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उपनिषद् साहित्य की सूक्तिया
दो सौ इक्कीस १२६. यह मानुप भाव-मानवता अर्थात् इन्सानियत-सब प्राणियो को मधु
के समान प्रिय है। १३० पुण्य कर्म से जीव पुण्यात्मा (पवित्र) होता है, और पाप कर्म से पापात्मा
(पतित-मलिन) होता है। १३१. ब्रह्मज्ञानी पाण्डित्य को-विद्वत्ता के दपं को छोड़ कर बालक-जैसा
सरल बन जाता है। १३२ आत्मा स्वयं अदृष्ट रह कर भी द्रष्टा है, देखने वाला है ।
१३३ श्रद्धा में ही दान-दक्षिणा की प्रतिष्ठा है, शोभा है।
१३४. दीक्षा किस में प्रतिष्ठित है ? सत्य मे ।
सत्य किस मे प्रतिष्ठिन है ? हृदय मे ।
१३५. आत्मा अग्राह्य है, अत वह पकड़ मे नही आता; मात्मा अशीयं है,
अत. वह क्षीण नहीं होता , आत्मा असंग है, अतः वह किसी से लिप्त नही होता; मात्मा असित है-वन्धनरहित है, अत: वह व्यथित नहीं
होता, नष्ट नहीं होता। १३६ जो जैसा कर्म करता है, जैसा आचरण करता है, वह वैसा ही हो
जाता है-साघु कर्म करनेवाला साधु होता है, और पापकर्म करने
वाला पापी। १३७. यह पुरुष काममय है, सकल्परूप है । जैसा सकल्प होता है, वैसा ही ऋतु
अर्थात् प्रयत्न होता है, जैसा ऋतु होता है वैसा ही कम होता है,
और जैसा कर्म होता है वैसा ही उसका फल होता है। १३८ यह अजन्मा प्रात्मा महान् ध्रुव है, मलरहित आकाश से भी बढ कर
महान् निमल है। १३६. धीर ब्राह्मण को उचित है कि वह आत्मतत्व का बोध करके अपने को
प्रज्ञायुक्त करे, लम्बे-चौडे शब्द जाल मे न उलझे, क्योकि आत्म बोध के अतिरिक्त सब कुछ वाणी का थकाना मात्र है, और कुछ नही ।