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उपनिषद् साहित्य की सूक्तियाँ
दो सौ उन्नीस
११८. क्षात्र धर्मं से बढ कर कुछ नही है, इसीलिए राजसूय यज्ञ मे ब्राह्मण क्षत्रिय से नीचे बैठता है, अपने यश को क्षात्र धर्म के प्रति समर्पित कर देता है ।
११६. जो धर्म है, वह सत्य ही तो है ।
१२०. जो आत्मलोक की उपासना करता है—अपने 'ब्रह्म' अर्थात् महान् रूप को समझ लेता है, उसके सत्कर्म (अच्छे काम करते रहने को शक्ति) कभी क्षीण नही होते ।
देवो को -दिव्य आत्माओ को पाप का स्पर्श नही होता ।
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धन से अमरता की आशा न करो ।
आत्मा का ही दर्शन करना चाहिए, श्रात्मा के सम्बन्ध मे ही सुनना चाहिए, मनन- चिन्तन करना चाहिए, और आत्मा का ही निदिध्यासनध्यान करना चाहिए ।
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एक मात्र आत्मा के ही दर्शन से, श्रवण से, मनन- चिन्तन से और विज्ञान से— सम्यक् जानने से सब कुछ जान लिया जाता है ।
१२५. सब वेदो (शास्त्री) का वाणी ही एक मात्र मार्ग है ।
१२६. यह पृथिवी सब प्राणियों का मधु है - अर्थात् मधु के समान प्रिय है ।
आत्मा ही अमृत है, आत्मा ही ब्रह्म है, आत्मा ही यह सब कुछ है ।
१२८, यह धर्म सब प्राणियो को मधु के समान प्रिय है ।
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