________________
उपनिषद् साहित्य को सूक्तियां
एक सौ निन्यानवे २५ सांसारिक सुखो को सोने की साकल मे तू नही बंधा, जिसमे दूसरे बहुत
से लोग तो जकडे ही जाते है ।
__ २६ ससारी जीव अविद्या मे फंसे हुए भी अपने को धीर और पडित माने
फिरते हैं । टेढे-मेढे रास्तो से इधर-उधर भटकते हुए ये मूढ ऐसे जा रहे हैं जैसे अन्धा अन्धे को लिए चल रहा हो ।
२७ वैभव के मोह मे पडे हुए प्रमादी व्यक्ति को परलोक की बात नहीं
सूझती, उसे तो वर्तमान प्रत्यक्ष लोक हो सत्य प्रतीत होता है।
२८. यह आत्मज्ञान अत्यन्त गूढ है । वहुतो को तो यह सुनने को भी नही
मिलता, बहुत से लोग सुन तो लेते हैं किन्तु कुछ जान नहीं पाते । ऐसे गूढ तत्व का प्रवक्ता कोई माश्चर्यमय विरला ही होता है, उसको पाने वाला तो कोई कुशल ही होता है । और कुशल गुरु के उपदेश से कोई
विरला ही उसे जान पाता है । २६. यह प्रात्म-ज्ञान कोरे तक वितर्कों से झुठलाने-जैसा नहीं है।
३०. मैं जानता हूँ--यह धन सपत्ति अनित्य है। जो वस्तुएँ स्वय अध्र व
(अस्थिर) हैं, उनसे ध्र व (आत्मा) नहीं प्राप्त किया जा सकता।
३१. जो अध्यात्मयोग के द्वारा दिव्य प्रात्म-तत्त्व को जान लेता है, वह धीर
(ज्ञानी) हो जाता है, फरत' वह हर्ष तथा शोक-दोनो द्वन्द्वो से मुक्त
हो जाता है। ३२. मात्म तत्त्व अणु (सूक्ष्म) से भी अणु है, और महान् से भी महान् है ।