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उपनिषद् साहित्य की सूक्तियां
दो सौ नौ
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जब यह जीव अपने मे तथा ब्रह्म मे जरा भी अन्तर ( भेदबुद्धि) रखता है, बस, तभी उसके लिए भय मा खडा होता है ।
६८. उसने जाना कि आनन्द ब्रह्म है | आनन्द से ही सब भूत उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होने के बाद आनन्द से ही जीवित रहते हैं, और अन्ततः आनन्द में ही विलीन होते हैं ।
६६. अन्न की निन्दा मत करो ।
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अन्न अधिकाधिक उपजाना - बढाना चाहिए, यह एक व्रत ( राष्ट्रीय प्रण ) है |
घर पर आए अतिथि को कभी निराश नही करना चाहिए - यह एक व्रत है । उसके लिए जैसे भी हो, यथेष्ट विपुल अन्न जुटाना ही चाहिए । जो भोजन तैयार किया जाता है, वह अतिथि के लिए ही किया जाता है - ऐसा प्राचीन महर्षियो ने कहा है ।
नि सन्देह मनुष्य ही विधाता की सुन्दर कृति है ।
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( अन्न के लिए पुरुषार्थं करना होता है, अन्न कोरी बातो से नही प्राप्त किया जा सकता ।) यदि अन्न केवल वाणी से पकड मे आने वाला होता तो वाणी द्वारा 'अन्न' कह देने मात्र से सब लोग तृप्त हो जाते, सब की भूख शान्त हो जाती ।
७४. जो काम विद्या से श्रद्धा से और उपनिषद् (तात्विक अनुमूर्ति ) से किया जाता है, वह वीर्यशाली अर्थात् सुदृढ होता है ।
७५ पुरुष क्रतुमय है, वर्ममय है । यहा इस लोक मे जैसा भी कर्म किया जाता है, वैसा ही कर्म यहाँ से चलकर आगे परलोक मे होता है । अर्थात् मनुष्य जैसा अच्छा या बुरा कर्म यहां करता है, वैसा ही उसका वहाँ परलोक बनता है ।