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दो सौ पन्द्रह
उपनिषद् साहित्य की सूक्तिया
६६. आत्मा के भूमा स्वरूप का साक्षात्कार करने वाला सब कुछ देख लेता है, सब तरह से सब कुछ पा लेता है । अर्थात् आत्म-द्रष्टा के लिए कुछ भी प्राप्त करने जैसा शेष नही रहता ।
१०० महार शुद्ध होने पर सत्त्व (अन्तःकरण ) शुद्ध हो जाता है, सत्त्व शुद्ध होने पर ध्रुव स्मृति हो जाती है - अपने ध्रुव एव नित्य आत्म-स्वरूप का स्मरण हो थाता है, अपने ध्रुव स्वरूप का स्मरण हो आने पर अन्दर की सब गाँठें खुल जाती है - अर्थात् आत्मा बन्धनमुक्त हो जाता है ।
१०१. शरीररूपी ब्रह्मपुरी मे सब कुछ समाया हुआ है ।
१०२. शरीर के जराजीर्ण होने पर वह (चैतन्य) जीणं नही होता, शरीर के नाश होने पर उसका नाश नही होता ।
१०३
जब भी मानव आत्मा को सच्चे मन से मित्रलोक की कामना होती है, तो सकल्पमात्र से उसे सर्वत्र मित्र ही मित्र दिखाई देते हैं ।
१०४. मानव हृदय मे सत्य-कामनाएं मौजूद रहती हैं, परन्तु विषयो के प्रति होनेवाली मिथ्या तृष्णा का उन पर आवरण चढ़ा रहता है ।
१०५. तृष्णा के अनृत आवरण से आच्छादित रहने के कारण ही साधारण जन ब्रह्म रूप अपने बात्म स्वरूप को नही पहिचान पाते ।
१०६. जिसे महर्षि मौन कहते हैं, वह भी ब्रह्मचर्य ही है - अर्थात् मौन वाणी का ब्रह्मचर्यं है ।
१०७
श्रात्मा की पूजा एव परिचर्या (सेवा) करने वाला मनुष्य दोनो लोको को सुन्दर बनाता है - इस लोक को भी और उस लोक को भी ।
१०८. जो दान नही देता, श्रेष्ठ आदर्शो के प्रति श्रद्धा नही रखता, यज्ञ ( लोकहितकारी सत्कर्म) नही करता, उसे असुर कहते हैं ।