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उपनिषद् साहित्य को सूक्तिया
दो सो तीन
४२. इन्द्रियो को स्थिरता को ही योग माना गया है । जिसको इन्द्रिया स्थिर हो
जाती हैं, वह अप्रमत्त हो जाता है । योग का अभिप्राय है ~प्रभव तथा
मप्यय अर्थात् शुद्ध संस्कारो की उत्पत्ति एवं अशुद्ध संस्कारो का नाश । ४३. जब मनुष्य के हृदय की समस्त कामनाएं छूट जाती हैं, तब मरणधर्मा
मनुप्य यमृत (अमर) हो जाता है और यही-इस जन्म मे ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता।
४४. ब्रह्मलोक उनका है, जो तप, ब्रह्मचर्य तथा सत्य में निष्ठा रखते हैं ।
४५. शुद्ध, निर्मल ब्रह्मलोक उन्ही को प्राप्त होता है, जिन मे कुटिलता नही,
अनृत (असत्य) नही, माया नही ।
४६ जो व्यक्ति असत्य बोलता है, वह समूल अर्थात् सर्वतोभावेन जडसहित
सूख जाता है, नष्ट हो जाता है।
४७. तप के द्वारा ही ब्रह्म (परमात्मभाव) प्रवृद्ध होता है, विराट् होता है।
४८. एकमात्र आत्मा को-अपने आप को पहचानो, अन्य सब बातें करना
छोड दो । ससार-सागर से पार होकर अमृतत्व तक पहुंचने का यही एक
सेतु (पुल) है। ४६. हृदय की सब गाठे स्वय खुल जाती हैं, मन के सब सशय कट जाते हैं,
और साथ ही शुभ अशुभ कर्म भी क्षीण हो जाते हैं, जब उस परम
चैतन्य का पर और अवर (मोर छोर, पूर्णस्वरूप) देख लिया जाता है । ५०. विद्वान् (तत्त्वज्ञ) अतिवादी नही होता, अर्थात् वह सक्षेप मे मुद्दे की
बात करता है, बहुत अधिक नही बोलता।