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उपनिषद् साहित्य को सूक्तिया
दो सौ एक ३३. आत्मा लम्बे चौडे प्रवचनो से नहीं मिलता, तर्क-वितकं की बुद्धि से भी
नही मिलता और बहुत अधिक पढने सुनने से भी नहीं मिलता । जिसको यह मात्मा वरण कर लेता है वही इसे प्राप्त कर सकता है। उसके समक्ष मात्मा अपने स्वरूप को खोलकर रख देता है ।
३४ जो व्यक्ति दुराचार से विरत नहीं है, अशान्त है, तर्क-वितर्क मे उलझा
हुआ है, चचलचित्त है, उसे प्रात्मस्वरूप की उपलब्धि नही हो सकती ।
आत्मा को तो प्रज्ञान के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। ३५. विवेकबुद्धि एव सयत मन वाला पवित्रहृदय पुरुष उस परमात्म
स्वरूप परमपद को पा लेता है, जहां से लौटकर फिर जन्म धारण नही
करना होता। ३६ उठो, जागो, श्रेष्ठ पुरुपो के सम्पर्क मे रहकर आत्म-ज्ञान प्राप्त करो।
क्योकि बुद्धिमान पुरुष इस (आत्मज्ञानसम्बन्धी) मार्ग को छुरे की तीक्ष्ण
धार के समान दुर्गम कहते है। - ३७. स्वयमू ने सब इन्द्रियो के द्वार बाहर को गोर निर्मित किए है, इसलिए
इन्द्रियो से वाह्य वस्तुएं ही देखी जा सकती है, अन्तरात्मा नही ! अमृतत्व को चाहने वाला कोई विरला ही घोर पुरुष ऐसा होता है, जो वाह्य विषयो से आंखें मूद लेता है और अन्तमुख हो कर अन्तरात्मा
के दर्शन करता है। ३८. जो व्यक्ति नानात्वका अर्थात् जीवन मे अनेकता का ही दर्शन करता है,
एकत्वका नही, वह निरन्तर मृत्यु से मृत्यु की ओर बढता रहता है। ३९. यहां (विश्व में एव जनजीवन मे) नानात्व अर्थात् अनेकता-जैसा कुछ
नहीं है। ४०. हे गौतम ! जैसे वृष्टि का शुद्ध जल अन्य शुद्ध जल मे मिलकर उस-जैसा
ही हो जाता है, वैसे ही परमात्मतत्व को जानने वाले ज्ञानीजनो का
आत्मा भी परमात्मा मे मिलकर तद्रूप अर्थात् परमात्मरूप हो जाता है। ४१. जिसका जैसा कम होता है और जिसका जैसा ज्ञान होता है उसी के
अनुसार प्राणी, जगम एव स्थावररूप विभिन्न योनियो मे जाकर, शरीर धारण कर लेता है।