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दो सौ पाच
उपनिषद् साहित्य की सूक्तिया
५१ जो साधक श्रात्मा मे ही क्रीड़ा करता है, आत्मा मे ही रति ( रमण ) करता है, फिर भी सामाजिक जीवन मे क्रियाशील रहता है, वही ब्रह्मवेत्ताओ मे वरिष्ठ (श्र ेष्ठ) माना जाता है ।
५२. यह मात्मा नित्य एव निरन्तर के सत्य से, तप से, सम्यग्ज्ञान से तथा ब्रह्मचयं से ही प्राप्त किया जा सकता है । शरीर के भीतर ही वह आत्मतत्व शुभ्र ज्योतिर्मय रूप मे विद्यमान है । यति ( साधक ) लोग रागद्व ेषादि दोषो का क्षय करके ही उसको देख पाते है ।
५३. सत्य की ही विजय होती है, अनृत की नही । 'देवयान पन्था' —— देवत्व की तरफ जाने वाला मार्ग सत्य से ही वना है ।
५४ वह परम चैतन्यतत्त्व दूर से दूर है, परन्तु देखने वालो के लिए निकट से निकट इसी अन्तर की गुफा में विद्यमान है ।
५५. आत्मा को साधना के बल से हीन तथा प्रमादग्रस्त व्यक्ति प्राप्त नही कर सकते हैं, श्रौर न 'अलिङ्ग - तप' - अर्थात् प्रयोजनहीन तप करने वाला ही इसे प्राप्त कर सकता है ।
५६. प्रवहमान नदियाँ जैसे अपने पृथक्-पृथक् नाम और रूपो को छोड़कर समुद्र मे लीन हो जाती हैं- समुद्रस्वरूप हो जाती हैं, वैसे ही ज्ञानीजन अपने पृथक् नाम-रूप से छूटकर परात्पर दिव्य पुरुष (ब्रह्म) में लीन हो जाते हैं ।
५७. तू ज्ञान का कोश है—- खजाना है, चारो ओर मेघा ( बुद्धि ) से घिरा हुआ है।
५८. अन्न से ही सब प्राणो की महिमा बनी रहती है ।