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अथर्ववेद को सूक्तियां
एक सौ इकत्तीस
१०६. जिससे स्वयं द्वप करता हो, अथवा जो स्वय से द्वष करता हो, उसके
यहा भोजन नहीं करना चाहिए ।
११०. अतिथि जिसका अन्न खाता है, उसके सब पाप जल जाते हैं ।
१११. वह व्यक्ति घर के कीति और यश को खा जाता है, जो अतिथि से
पहले भोजन खाता है।
११२. अतिथि के भोजन कर लेने के पश्चात् हो गृहस्थ को स्वय भोजन
करना चाहिए, पहले नही । ११३ ब्रह्म (ज्ञान) ही काल को मापता है।
११४. जिस ब्रह्मपुरी मे शयन के कारण (पुरि शेते पुरुप ) पुरुप कहलाता है,
जो व्यक्ति उस ब्रह्मपुरी को, अर्थात् मानवशरीर को, उसके महत्त्व को जानता है, उसको समय से पहले प्राण (जीवन शक्ति) और चक्षु
(दर्शन शक्ति) नही छोडते हैं । ११५. आठ चक्र और नौ द्वारो वाला यह मानवशरीर देवो की अयोध्या
नगरी है । इसमें स्वर्ण का दिव्यकोष है, और प्रकाश से परिपूर्ण स्वर्ग है। . [दो आख, दो कान, दो नाक, एक मुख, एक मूत्रद्वार और एक गुदद्वार
-ये नौ द्वार हैं । माठ चक्र इस प्रकार हैं१ मूलाधार चक्र-गुदा के पास पृष्ठवश-मेरुदण्ड की समाप्ति के स्थान मे । २ स्वाधिष्ठान चक्र- इससे कुछ ऊपर | ३ मणिपूरक चक्र -नाभिस्थान मे। ४ अनाहत चक्र-हृदयस्थान मे । ५ विशुद्धि चक-कठस्थान मे । ६ ललना चक्र -जिह्वामूल मे। ७ आज्ञाचक्र -दोनो भौहो के बीच मे । ८ सहस्रारचक्क-मस्तिष्क मे ।।
११६. जो मनुष्य मे ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं, वे ही वस्तुतः परमेष्ठी
(ब्रह्म) को जानते है।