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आरण्यक साहित्य को सूक्तिया
एक सौ पिचासी
६६. प्राण, मन एव इन्द्रियो का एकत्व तथा समग्र बाह्य भावो का परित्याग योग कहलाता है ।
६७. जिस प्रकार इन्धन के समाप्त हो जाने पर अग्नि स्वय ही अपने स्थान मे बुझ जाती है, उसी प्रकार वृत्तियों का नाश होने पर चित्त स्वयमेव हो अपने उत्पत्ति स्थान मे शान्त हो जाता है ।
६८. चित्त ही संसार है, इसलिए प्रयत्न करके चित्त को ही शुद्ध बनाना चाहिए। जैसा चित्त होता है वैसा ही मनुष्य वन जाता है, यह सनातन रहस्य है ।
६६. चित्त के प्रसन्न (निर्मल) एवं शान्त हो जाने पर शुभाशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं । और प्रसन्न एव शान्तचित्त मनुष्य ही जव आत्मा मे लीन होता है तब वह अविनाशी आनन्द प्राप्त करता है ।
७०. मनुष्य का चित्त जितना विषयो मे लीन होता है, उतना ही यदि वह ब्रह्म मे लीन हो जाए तो फिर कौन है जो बन्धन से मुक्त न हो ?
७१. मन दो प्रकार का है, शुद्ध और अशुद्ध । कामनाओ से सहित मन अशुद्ध है, और कामनाओं से रहित मन शुद्ध ।
७२ समाधि के द्वारा जिसका मल दूर हो गया है और जो आत्मा में लीन हो चुका है, ऐसे चित्त को जिस आनन्द की उपलब्धि होती है उसका वर्णन वाणी द्वारा नही किया जा सकता, वह तो केवल आन्तरिक अनुभूति के द्वारा ही जाना जा सकता है ।
७३. मनुष्यो के वन्धन और मोक्ष का कारण एक मात्र मन ही है । विषयो में आसक्त रहने वाला मन बन्धन का कारण है और विषयो से मुक्त रहने वाला मन मोक्ष का कारण ।