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आरण्यक साहित्य को सूक्तिया
एक सौ सत्तासी ७४. जो महान् होता है, उसका व्रत (कर्म) भी महान् होता है ।
७५. जो सन्मार्ग में श्रेष्ठता को प्राप्त करता है, वही अतिथि होता है ।
७६. सन्मार्ग से भ्रष्ट व्यक्ति, भले कितना हो दरिद्र हो, अतिथि के रूप मे
समादृत नही होता है। ७७. सव काम (इच्छाए) मन मे ही उपस्थित होते हैं, यही कारण है कि
सब लोग अभीष्ट पदार्थों का सर्वप्रथम मन से ही ध्यान (सकल्प)
करते हैं। ७८. वाणी ही सब अभीप्ट कामनाओ का दोहन (सम्पादन) करती है, क्योकि
मनुष्य वाणी से ही इच्छायो को बाहर मे व्यक्त करता है ।
७६. देव, मनुष्य, पशु-पक्षो मादि प्राणीमान के सब शारीर प्राणवायु से आवृत
हैं, व्याप्त हैं। ८०. सस्य वाणीरूप वृक्ष का पुष्प है, फल है ।
८१. जिस प्रकार वृक्ष मूल (जड) के उखड जाने से सूख जाता है और अन्ततः
नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार असत्य बोलनेवाला व्यक्ति भी अपने आप को उखाड़ देता है, जनसमाज मे प्रतिष्ठाहीन हो जाता है, निन्दित होने से सूख जाता है-श्री हीन हो जाता है, और अन्ततः नरकादि दुर्गति पाकर नष्ट हो जाता है ।
१. सन्मार्गरहितं व्रात्याभिशस्तादिक पुरुषमत्यन्तदरिद्रमपि आतिथ्यसत्काराय नाद्रियन्ते । २. अभिलषितान् पदार्थान् सपादयति । ३. भूमेरुत्वातः सन् आविमूतमूलो भूत्वा प्रथम शुष्यति पश्चाद् उद्वर्तते-विनश्यति च । ४. सर्वेस्तिरस्कायंत्वमेव अस्य शोष. । ५ विनश्यति नरक प्राप्नोतीत्यर्थः ।