________________
मारण्यक साहित्य की सूक्तिया
एक सो तिरासी धर्म समग्र विश्व की अर्थात् विश्व के सब प्राणियो की प्रतिष्ठा (आश्रय, आधार) है | संमार मे धर्मिष्ठ व्यक्ति के पास ही जनता धर्माधर्म के निर्णय के लिए जाती है । धर्म से ही पाप का नाश होता है, धर्म मे ही सब कुछ प्रतिष्ठित है । इसलिए विद्वानो ने धर्म को ही सर्वश्रेष्ठ कहा है । ५८. यह समग्र दृश्य जगत् नश्वर है ।
५७
५६. जो तपस्वी नही है, उसका ध्यान आत्मा मे नही जमता और इसलिए उसकी कर्मशुद्धि भी नही होती ।
६०. तप द्वारा सत्त्व (ज्ञान) प्राप्त मन वन मे श्राने से आत्मा की हो जाने पर ससार से छुटकारा मिल जाता है ।
होता है, सत्त्व से मन वश मे आता है, प्राप्ति होती है, और आत्मा की प्राप्ति
६१ श्रध्यात्मविद्या से तप से ओर आत्मचिन्तन से ब्रह्म की उपलब्धि
,
होती है ।
६२ पुरुष ( चैतन्य आत्मा ) भोक्ता है, और प्रकृति भोज्य है ।
६३ जिस प्रकार पशु पक्षी जलते हुए पवंत का आश्रय ग्रहण नही करते, उसी प्रकार दोष (पाप) ब्रह्मवेत्ता (आत्मद्रष्टा ) के निकट नही जाते ।
६४ दो ब्रह्म जानने जैसे हैं--शब्द ब्रह्म और पर ब्रह्म । जो साधक शब्द ब्रह्म मे निष्णात होता है वही पर ब्रह्म को प्राप्त करता है ।
६५. मन के विलीन होने पर आत्मसाक्षी (आत्म दर्शन) से जो सुख प्राप्त होता है, वही ब्रह्म है, अमृत है, शुक्र है, वही गति है और वही प्रकाश है |
- यह मंत्रायणी उपनिषद् के नाम से भी प्रसिद्ध है । अक क्रमश. प्रपाठक एवं कण्डिका के सूचक हैं ।