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अथर्ववेद को सूक्तिया
एक सौ सेंतीस
१३५ इन्द्र (इन्द्रत्व प्राप्ति कराने वाले कर्म) से ही इन्द्र उत्पन्न होता है ।
१३६. सभी देव (दिव्य शक्तियाँ) पुरुप मे निवास करते हैं ।
१३७. एक से-पुण्य कर्म से स्वर्ग मे जाता है, एक से-पाप कर्म से नरक में
जाता है । और एक मे-पुण्य पाप के मिश्रित कर्म से मूलोक मे सुख
दुःख भोगता है। १३८. हे उदार वीर पुरुपो ! तन कर खड़े होओ और अपनी ध्वजामो
(मादों) के साथ जीवनसघर्षों के लिए संनद्ध हो जाओ। १३६. भूमि मेरी माता है और मैं उस का पुत्र हूँ।
१४०. भूमि पर के मरणधर्मा मानव अपने पुरुपार्थ से प्राप्त अन्न से ही जीवित
रहते हैं। १४१. संसार में मुझ से कोई भी द्वाप न करे ।
१४२. हे मूमि । मैं तेरे जिस भाग को खो दूं, वह शीघ्र ही भर जाए।
अर्थात् मानवजीवन के अभावग्रस्त रिक्तस्थान तत्काल पूरित होते
रहे । १४३. अनेक प्रकार के धर्म वाले और अनेक प्रकार की भाषावाले मनुष्यो को
एक घर की तरह समान भाव से पृथिवी अपने मे धारण करती है। १४४. हे दम्पती ! तुम क्षत्रशक्ति से-तेजस्वी कर्मयोग से अपने को
आच्छादित करो! १४५. जो पुरुष मांगने पर भी जिस वस्तु को नहीं देना चाहता, वह
(न दी हुई वस्तु) अन्ततः उस पुरुष का सहार कर देती है।
४. इह अस्मिन् भूलोके एकेन पुण्यपापात्मकेन मिश्रितेन कर्मणा निषेवते नितरा सुखदुःखात्मकान् भोगान् सेवते ।