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ब्राह्मण साहित्य की सूक्तिया
५५ पिता आदि गुरुजनो को नमस्कार बहुत अधिक प्रिय है ।
५६. वाणी को मन के साथ जोड़ो ।
एक सौ पचपन
५७. सच्चा वलवान ( शक्तिशाली ) वह है, जो कभी किसी से डर कर भागता नही है ।
५. ८. राजा (नायक) के बिना सेना युद्ध नहीं कर सकती, भाग जाती है ।
५६. मूखे और प्यासे लोगो की आर्त वाचा ही अधिक उग्र होती है, बत. दयालुजन उसे सुन नही सकते हैं, प्रर्थात् उसकी उपेक्षा नही कर सकते हैं ।
६०. अनेक प्रकार के पशु हो गृहस्थ की समृद्धि के हेतु होते हैं ।
६१. राजा ( राजनीतिक व्यक्ति) वहुत अधिक असत्य का आचरण करता है ।
६२. झूठ बोलने पर वरुण पकड लेते हैं ।
६३. ब्राह्मण ( सदाचारी विद्वान ) ही प्रजा ( जनता ) का पथप्रदर्शक उपदेष्टा है ।
६४. काम (इच्छा, तृष्णा) समुद्र के समान है ।
जैसे कि समुद्र का अन्त नही है, वैसे ही काम का भी कोई अन्त (सीमा) नही है ।
६५. गृहस्थ मनुष्य प्रजा ( सतान) से ही पूर्ण होता है ।
४. युयुत्सव' सर्वेऽपि राजानमन्तरेण पलायिष्यन्ते । ५. कृपालवः श्रोतु ं न सहन्ते । ६. हिताहितस्य प्रजानामुपदेष्टा ।