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ब्राह्मण साहित्य को सूक्तिया
एक सौ पैंसठ ११०. जो सत्कर्म मे श्रेष्ठ होने का अहकार करता है, वह भी पाप का भागी
होता है। १११. सदाचारी विद्वान् देवी वाणी बोलते हैं ।
११२. भूख और पापाचार से बुद्धि नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है।
११३. जो ऐश्वयं एव विद्या के घमड मे दूसरो का तिरस्कार करने वाली
वाणी बोलता है, जो पूर्वापर सम्बन्ध से रहित विवेकशून्य वाणी
बोलता है, वह राक्षमो वाणी है। ११४ सर्वार्थ का प्रकाशक होने से मन ही दीप्तिमान् है, मन से पहले कुछ
भी नही है-अर्थात् मन के विना किसी भी इन्द्रिय का व्यापार नही
होता है। ११५. मन से हो कर्म का विस्तार होता है ।
११६ जो भूत है, हो चुका है, वह सीमित है, और जो भव्य है, होने वाला
है, वह असीम है-अर्थात् भविष्य की सभावनाएँ सीमातीत हैं। ११७ वाणी समुद्र है । न समुद्र क्षीण होता है, न वाणी ही क्षीण
होती है। ११८. श्रद्धा एव सत्य के युगल (जोडे) से ही स्वर्ग लोक को जीता जा
सकता है। ११६ अन्न ही प्राण है।
१२०. गाय, भैस आदि पशु गृहस्थ जीवन के निर्वाहक है।
६ बुद्धिराहित्यात् पूर्वापरसम्बन्धरहिताम् । ७ मन सर्वार्थप्रकाशरत्वाद् दोदाय दीप्तियुक्त भवति । ८, किंचिदपीन्द्रिय व्यापारवन्नास्ति ।