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मारण्यक साहित्य की सूक्तियाँ
एक सौ उनआसी
३८. हम दोनो (गुरु-शिष्य) का साथ-साथ रक्षण हो, हम दोनो साथ-साथ
भोजन करें, हम दोनो साथ-साथ समाज के उत्थान के लिए पुरुषार्थ करें। हमारा अध्ययन तेजस्वी हो, हम परस्पर द्वप न करें।
३६. प्राणिजगत् मे अन्न ही मुख्य है। अन्नको समग्न रोगो की मोषध कहा . है। (क्योकि सब औषधियो का सार अन्न में है ।) अन्न से ही प्राणी
पैदा होते हैं और अन्न से ही बढ़ते है ।
४०. उसने तप किया और तप करके इस सब की रचना की।
४१. यह अच्छी तरह से जान लीजिए कि अन्न ही ब्रह्म है।
४२. तप के द्वारा ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप को जानिए ।
४३. तप ही ब्रह्म है।
४४. मै ज्योति हूँ। यह जो अन्दर मे ज्योति प्रज्ज्वलित है, वह ब्रह्म मैं हूँ ।
जो मैं पहले जीव हूँ, वही शुद्ध होने पर ब्रह्म हो जाता हूँ। इसलिए मैं हो मैं हूँ। उपासनाकाल मे भी मैं अपनी ही उपासना करता हूँ।
४५. ऋत (मन का सत्य संकल्प) तप है । सत्य (वाणी से यथार्थ भाषण)
तप है। श्रुत (शास्त्रश्रवण) तप है । शान्ति (ऐन्द्रियिक विपयो से विरक्ति) तप है । दान तप है।।
सति वस्तुत पूर्वसिद्धमेव ब्रह्मस्वरूपमिदानीमनुभविताऽस्मि, न नूतन किंचिद् ब्रह्मत्वमागतम् । ४. धनेषु स्वत्वनिवृति , परस्वत्वापादनपर्यन्ता ।