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आरण्यक साहित्य की सूक्तियां
एक सौ तिहत्तर
प्रज्ञा (चेतना) से रहित शरीर सुख दुःस बादि किसी भी प्रकार की अनुभूति नही कर सकता
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६ यह चैतन्य प्रज्ञात्मा अनन्त है, अजर है, अमृत है । न यह सत्कर्मों से बड़ा होता है, बोर न असत्कमों से छोटा ।
१० मनुष्य सर्वप्रथम मन मे सोचता है, फिर उसी को वाणी से बोलता है, मत मन पूर्व रूप है और वाणी उत्तर रूप है ।
११, जिस प्रकार वाकाश में सूर्य है उसी प्रकार मस्तक मे चक्षु (नेत्र) है | और जिस प्रकार अन्तरिक्ष में विद्युत, है उसी प्रकार आत्मा मे हृदय है ।
१२. माता पूर्वरूप है और पिता उत्तर रूप, और प्रजा (सतान) दोनो के बीच की सहिता है ।
१३. प्रज्ञा (बुद्धि) पूर्वरूप है और श्रद्धा उत्तर रूप, और कर्म दोनो के बीच की सहिता है ।
१४. समग्र वाणी ब्रह्मस्वरूप है ।
१५. जल सृप्त होते हैं तो नदियो को तृप्त करते हैं, और नदिया तृप्त होती है तो समुद्र को तृप्त करती हैं । ( इसी प्रकार व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र एव विश्व तृप्त होते जाते हैं ।)
१६. मेरी वाणी में अग्नि (तेज) प्रतिष्ठित है, वाणी हृदय मे प्रतिष्ठित है और हृदय आत्मा मे प्रतिष्ठित है ।
१७. साधक को शान्त, दान्त, उपरत ( विषयो से विरक्त), तितिक्षु ( सहन शील) एवं श्रद्धावान् होकर आत्मा मे ही आत्मा का दर्शन करना चाहिए ।
१८ जो वेदो ( शास्त्रो) को पढकर भी उनका अर्थ (ममं, रहस्य ) नही जानता है, वह केवल भार ढोने वाला मजदूर है, और है फूल एव