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ब्राह्मण साहित्य को सूक्तिया
एक सौ तिरेपन ४४. अतिथि को घृत से अर्थात् स्नेह-सिक्त मधुरवाणी से सम्बोधित
करना चाहिए। ४५. मैं असत्य से सत्य को प्राप्त करता हूँ, मैं मनुष्य से देवत्व को प्राप्त
करता हूं। ४६. मैं लोक और पर लोक-दोनो मे समृद्ध होकर मृत्यु (विनाश) से पूर्णः
रूपेण पार हो रहा हूँ। ४७. तुम्हारे हृदय परस्पर एक दूसरे से अनुरक्त हो, अर्थात् प्राप्त कर्तव्यो मे
एकमत हो। तुम्हारे प्रिय शरीर एक कार्य (लक्ष्य) मे प्रवृत्त हो । तुम्हारे हृदय एक कार्य मे प्रवृत्त हो । तुम्हारी आत्मा एक कार्य मे प्रवृत्त हो ।
४६. मयों (मरणधर्मा मनुष्यो) ने ही अमृत का आविष्कार किया है।
५०. मैं तुझसे हूँ, तू मुझसे है ।
५१. सन्मार्गवर्ती सत्पुरुषो की श्री अमृत (अजर अमर) रहती है।
५२. शरीर से सम्बन्धित होते हुए भी चैतन्य आत्मा न शरीर के स्थूल होने
पर स्थूल होता है, और न कृश होने पर कृश । ५३. देव (दिव्य आत्मा) ही ब्रह्म (वेद, शास्त्र) और अन्न (भोगोफ्भोग) के
मलिन अश को दूर करते हैं। ५४. वाणी ही सरस्वती है ।
कार्ये प्रवर्तन्ताम् । ३. ब्रह्मणो वेदस्य । ४. शमल मलिनभागम् ।