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अथर्ववेद को सूक्तिया
एक सौ इकतालीस १५७. असत् मे अर्थात् नामरूपादि विशेषताओ से रहित अव्यक्त मे सत् अर्थात्
नाम रूपादि विशेषताओ से सहित व्यक्त प्रतिष्ठित है । अर्थात् कारण
मे कार्य अन्तनिहित है। १५८. मृत्यु हम से दूर भाग जाए, नमरता हमारे निकट आए ।
१५६. तीर्थों के द्वारा, अर्थात् सत्कर्मों के द्वारा ही मानव अतिभयकर माप
त्तियो से पार हो जाते हैं । १६०. जिससे हमे भय प्राप्त होने को आशका हो, उससे भी हमे अभय
प्राप्त हो । १६१. ब्राह्मण जनहितरूप यज्ञ कर्म का अथवा समाज का मुख है, तो क्षत्रिय
उस की बाहु है । वैश्य इस का मध्य प्रग है, तो शूद्र उसका पैर है ।
१६२. जहां चलना पूर्ण होता है, मै उस परम नि.श्रेयस् स्वरूप गन्तव्य स्थान
पर पहुच गया हूँ। १६३. हमे शत्रु एव मित्र किसी से भी भय न हो । न परिचितो से भय हो,
न अपरचितो से । न हमे रात्रि मे भय हो, और न दिन मे । किंबहुना, सब दिशाएं मेरी मित्र हो, मित्र के समान सदैव हितकारिणी हो ।
१६४. वसन्त आदि के रूप मे आये हुए काल से ही ये सब प्रजाएं अपने
अपने कार्य की सिद्धि होने से सन्तुष्ट होती हैं।
इति अवसानम् ।....आगाम् प्राप्तवानस्मि । ५. परः ज्ञाताद् अत्य अपरिज्ञातः । ६. मित्रवन्मित्रं सर्वदा हितकारिण्यो भवन्तु । ७. वसन्तादिरूपेण आगतेन । ८. नन्दन्ति-सन्तुष्यन्ति स्व-स्वकार्यसिद्ध ।