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अथर्ववेद की सूक्तियां
एक सो उनचालीस
१४६. ब्राह्मण (विद्वान) की गी (वाणी) मत्य से मावृत रहती है, ऐश्वयं से पूर्ण रहती है और यश से सम्पन्न रहती है ।
१४७. मैं (पति) विष्णु हूँ और तू (पत्नी) लक्ष्मी है ।
१४८. सुन्दर, रमणीय ( रोचक ), शक्तिशाली और मधुर वाणी बोलो ।
१४६. मेरा हृदय सदैव मन्तापरहित रहे ।
१५०. में धन एवं ऐश्वयं का नाभि ( केन्द्र ) होऊ, में अपने बराबर के साथी जनो का भी नाभि होऊ अर्थात् जैसे कि रथचक्र की नाभि से चक्र के सब आरे जुडे रहते हैं, वैसे ही सब प्रकार के ऐश्वयं मीर वरावर के साथी मुझ से सम्बन्धित रहे, मैं सब का केन्द्र वनकर रहूँ ।
१५१. जो हम से द्व ेष करता है, वह अपनी आत्मा से ही द्व ेष करता है ।
१५२. ससार मे अपना जीता हुमा-भर्जित किया हुआ ही हमारा है ।
१५३० सत्य हमारा है, तेज हमारा है, ब्रह्म हमारा है, स्वर्ग हमारा है और यज्ञ (सुकृत कर्म) भी हमारा है ।
१५४. मैं जनता का प्रिय होऊ ।
१५५. मैं अपने बराबर के साथियो का प्रिय होऊ ।
१५६. हे सब के प्रेरक सूर्यं । उदय होइए, उदय होइए, प्रखर तेज के साथ मेरे लिए उदय होइए ।
जिन प्राणियो को में प्रत्यक्ष मे देख पाता हूँ, और परोक्ष होने से जिन्हें नहीं भी देखपाता हूँ, उन सब के प्रति मुझे सुमति अर्थात् द्रोहरहित बुद्धि प्रदान करो ।
समदर्शिन एव जायते । तथाविधा दृष्टि. परमेश्वरप्रीतये भवति ।