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अथर्ववेद को सूक्तियां
एक सौ तेतीस
११७ सर्वसाधारण लोग आंख से देखते है, मन (मनन-चिन्तन) से नही
देखते ।
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११८. सत्य से मनुष्य सब के ऊपर तपता है, ज्ञान से मनुष्य नीचे देखता है,
अर्थात् नम्र होकर चलता है । ११६. इस आत्मा को सनातन कहा है । यह मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म लेकर
फिर नवीन हो जाता है। १२०. यह प्रात्मा वाल से भी अधिक सूक्ष्म है. इसीलिए यह विश्व मे एक
अर्थात् प्रमुग्व होते हुए भी नही-सा दिखता है । पूर्ण से ही पूर्ण उदञ्चित होता है, पूर्ण ही पूर्ण से सिञ्चित होता है । अर्थात् पूर्ण-योग्य व्यक्ति के द्वारा ही कर्म की पूर्णता सम्पादित
होती है । १२२ आत्मदेव के दिव्य कर्तृत्व-कृतित्व को देखो, जो न कभी मरता है
और न कभी जीर्ण होता है । १२३ जो सूत्र के भी सूय को जानता है, अर्थात् वाह्य प्रपच के मूल सूत्रस्वरूप
आत्म तत्व को पहचानता है, वही महद् ब्रह्म को जान सकता है । १२४. जो धीर, अजर अमर, सदाकाल तरुण रहने वाले प्रात्मा को जानता
है, वह कभी मृत्यु से नहीं डरता।
१२५ जो सैकडो लोगो को अन्न-भोजन देने वाली (शतौदना) गौ का पालन
पोषण करता है, वह अपने सकल्पो को पूर्ण करता है । १२६ मानव | तेरे से कुछ भी दूर नहीं है, विश्व मे तेरे से अलग छुपाकर
रखने जैसी कोई भी दुष्प्राप्य चीज नही है । १२७. तू उठ कर खडा हो और सोने वालो के बीच उनकी रक्षा के लिए
सतत जागता रह, क्योकि सोने वाला प्राणी तिरछा होकर लुढक जाता है।