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अथर्ववेद की सूक्तिया
एक सौ उनतीस ६६ हे प्रात्मन् ! तू कभी मरेगा नही, मरेगा नही, मत मृत्यु से मत डर ।
१००. जो अपम-तमोगुण को नही अपनाते, वे कभी नष्ट नही होते ।
१०१. दुराचारी लोग इधर-उधर सुख से नहीं घूम सकते ।
१०२ हे इन्द्र | असत्य भाषण करने वाला असत्य (लुप्त) ही हो जाता है।
१०३. उल्लू के समान अज्ञानी मूढ, भेड़िये के समान क्रोधी, कुत्ते के समान
झगड़ालू चक्रवाक के समान कामी, गोध के समान लोभी और गरुड़ के समान घमडी लोगो का सग छोडो । ये राक्षसवृत्ति के लोग वैसे ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे पत्थरो की मार से पक्षी !
१०४. चावल और जी स्वर्ग के पुत्र हैं, अमर होने के मीपध हैं ।
१०५. मनुष्य के मन मे सबसे पहसे संकल्प ही प्रकट होता है ।
१०६ माता को (घर मे) दान दक्षिणा (वितरण) की धुरा मे नियुक्त किया
गया है। १०७ जो क्रान्तदर्शी पुत्र है, वही यह देश-काल का ज्ञान अथवा आत्मा का
ज्ञान प्राप्त करता है । और जो इस ज्ञान को यथावत् जान लेता है, वह पिता का भी पिता हो जाता है। अर्थात् उसकी योग्यता बहुत
बडी हो जाती है। १०८. ज्ञानयोगी साधक सत्य की पूर्णता करता है, और असत्य को नीचे
गिराता है।