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अथर्ववेद की सूक्तियां
एक सौ पच्चीस
७८. हम मनन चिन्तन के द्वारा उत्तम ज्ञान प्राप्त करें, ज्ञान प्राप्त कर एक
मन से रहे । सदेव दिव्य मन से युक्त रहे, वियुक्त न हो। ७६ ये दोनो वालक अर्थात् सूर्य और चन्द्र अपनी दिव्य शक्ति से खेलते हुए
आगे-पीछे पलते है और भ्रमण करते हुए समुद्र तक पहुंचते हैं ।
८०. लताओ को पुरानी मूखी लकडी के समान दुष्ट हिंसको के बल को काटो
और दवा दो।
८१ अपने मूल ईश्वरीय स्वस्प को प्राप्त कर ।
५२. पहले मार्ग को जानिए, फिर उस पर चलिए ।
८३. मैं स्वप्न मे जो भोगोपभोग करता है, जो दृश्य देखता हूँ, वह सब
असत् है, क्योकि सवेरा होने पर वह कुछ भी तो दिखाई नहीं देता। ८४. मै आपस के कलह को स्नेह से गान्त करता हूँ।
८५. हे लक्ष्मी ! यदि तुमसे पाप होता हो तो तू मेरे यहाँ से दूर चली जा,
नष्ट हो जा। ८६. मनुष्य के शरीर के साथ जन्मकाल से ही एक सौ एक लक्ष्मी (शक्तियां)
उत्पन्न होती हैं। ८७. जो लक्ष्मी अर्थात् शक्ति पवित्र हैं, पुण्यकारिणी है, वे मेरे यहाँ आनन्द से
रहे, और जो पापी हैं, पापकारिणी है, वे सब नष्ट हो जाएँ। ८८. हे मनुष्य । तू ऊपर चढ, नीचे न गिर ।
नष्टा भव । ७. नश्यन्तु इत्यर्थः । ८. उत्क्रमणं कुरु । ६. अवपतन माकार्षीः ।