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अथर्ववेद की सूक्तियां
एक सौ पन्द्रह २४ मैं अपने जीवनपथ की बड़ी से बड़ी विघ्नबाधामो को परास्त
कर दूंगा। २५. पृथ्वी पर चारो ओर सैकडो विघ्न खडे हैं ।
२६. मेरा वचन दूध जैसा मधुर, मारयुक्त एवं सबके लिए उपादेय हो ।
२७ हे मनुष्य | तू सौ हाथो से कमा और हजार हाथो से उसे समाज में
फैलादे अर्थात् दान करदे । इस प्रकार तू अपने किये हुए तथा किये जाने वाले कार्य की अभिवृद्धि कर ।
२८.
मग
काम समुद्र में प्रविष्ट होता है-अर्थात् कामनाएं समुद्र के समान नि सीम हैं, उनका कही अन्त नही है।
२६. आप सव परस्पर एक दूसरे के प्रति हृदय में शुभ सङ्कल्प रखें, द्वष न
करें। आप सब एक दूसरे को ऐसे प्रेम से चाहे जैसे कि गौ अपने
नवजात (नये जन्मे हुए) बछडे पर प्रेम करती है । ३०. पुत्र अपने पिता के अनुकूल आचरण करे । माता पुत्र-पुत्रियो के साथ
एक-से मन वाली हो। पत्नी पति के साथ मधुर और सुखदायिनी वाणी बोले ।
३१. भाई-भाई आपस में द्वष न करें, बहिन-बहिन आपस मे द्वष न करें।
सब लोग समान गति और समान फर्मवाले होकर मिलजुलकर कार्य
करें, और परस्पर कल्याणकारी शिष्ट भाषण करे । ३२ जिससे श्रेष्ठजन भिन्न मतिवाले नही होते हैं, और परस्पर द्वष भी
नही करते हैं, उम ऐकमत्योत्पादक सर्वोत्तम ब्रह्मज्ञान का उपदेश हम आप सब पुरुषो को करते हैं ।
११. शन्तिवाम्-सुखयुक्ता वाचम् ।....'कशभ्याम्' इति शम्शब्दात् ति प्रत्यय , ततो मत्वर्थीयः । १२. द्विष्यात् । १३ सम्पञ्च. समञ्चना. समानगतय. । १४. समानकर्माण.। १५ वियन्ति विमति न प्राप्नुवन्ति ।