________________
अथर्ववेद की मूस्तियां
एक सो उन्नीग ४३ है दिव्य बात्मालो । तुम अवनतो को दुबारा उन्नत करो। अर्थात् गिरे
हुयो को फिर ऊँचा उठानो। ४४ पवित्र माचारवाने आत्मा ही उच्च स्थानो को प्राप्त होते हैं ।
४५ मर्वप्रथम तू अपने नापको वश मे कर-- टार्थात् सयमित कर, तभी तू
दूसरो को वश में कर सकेगा। ४६. उल्लाह (अथवा तेज) हो इन्द्र है, उत्साह हो देव है ।
४७ जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं मोर अपरिगहस्प यमो मे रहता
है, वह देवत्व को प्राप्त होता है। ४८. मैं विश्व को जीतने वाले ब्रह्मौदन (ज्ञानरूपी अन्न) को पकाता हूँ अर्थात्
उसे परिपक्व करता है। ४६. नानी प्रत्येक युद्ध मे अर्थात् हर संघर्ष मे प्रसन्न रहते हैं ।
५०. मनुष्य, तेरे मन को दुष्टता एवं शोक के विचार न दवाएं।
५१ जिस घर मे छोटे और बड़े सब मिलकर रहते हैं, वह घर अपने बलपर
सदा सुरक्षित रहता है। शीघ्रता से कार्य करने वाला तपस्वी अर्थात् परिश्रमी एवं स्फूर्तिमान्
व्यक्ति विश्व को हिला देता है । ५३ हे देव, मेरा तेज संघर्षों मे सदा प्रकाशमान रहे ।
५४ मेरा अन्तरिक्ष अर्थात् कार्यक्षेत्र विस्तृत परिवेशवाला हो ।
५५. कृपणता मनुष्य के मन और संकल्प को मलिन कर देती है ।