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ऋग्वेद की सूक्तिया
इकत्तीस
१३६. कोई कैसा ही क्यो न वलवान हो, यदि वह असत्यवादी एव पापी है तो उसे सोम देवता किसी महान् कार्य के लिए नियुक्त नही करते हैं ।
१३७. हमेशा मारधाड मे प्रसन्न रहने वाले सिरफिरे दुष्टजन शीघ्र ही नष्ट हो जाते है | उन्हे उगते हुए सूर्य के दर्शन नहीं होते ।
१३८. जो लोग दानी नही है, उन्हें सदा दूर रखिए ।
१३६ प्रवाह मे वहते हुए जल के समान प्रिय एव सत्य वाचा क्रीडा करती हुई वहती है ।
१४०. सूर्य हम सबके लिए सुग्वद होकर तपे, वायु पापताप से रहित शुद्ध होकर बहे ।
१४१. जो व्यक्ति किसी को राक्षस भाव (दुर्भाव ) से
नष्ट करना चाहता है, वह स्वयं अपने ही पापकर्मों से नष्ट हो जाता है, अपदस्थ हो जाता है ।
१४२. अपने मन को भद्र ( कल्याणकारी, उदार) बनाओ ।
१४३ हे मित्र के समान तेजस्वी ज्योतिमंयदेव, में मरणधर्मा मनुष्य तेरी उपासना से तू ही ( त्वद्स्प) हो जाता हूँ, मरण से मुक्त अमत्यं ( अमर ) हो जाता हूँ ।
१४४. हे इन्द्र । तुम दानादि गुणो से रहित कोरे धनी व्यक्ति को अपना मित्र नही बनाते हो ।
१४५० ( सदभाव से दिया गया) दान कभी नष्ट कही होता ।
तदेव भवन्तीति श्रुते, तहि अह अमत्यों मरणधर्मरहितो देव एव भवेयम् ।