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ऋग्वेद की सूक्तियां
उडनचास जन) होती है । वह जो सुनता है (अध्ययन करता है), सब व्यर्थ सुनता है, क्यो कि वह सुकृत के मार्ग को नही जानता है ।
२२०. आंख-कान आदि बाह्य इन्द्रियो का एक जैसा ज्ञान रखनेवाले भी
मानसिक प्रतिभा मे एक जैसे नहीं होते हैं, कुछ लोग मुख तक गहरे जल वाले तथा कुछ लोग कमर तक गहरे जलवाले जलाशय के समान होते हैं । और कुछ लोग स्नान करने के सर्वथा उपयुक्त गभीर ह्रद के
समान होते हैं। २२१ असत् (अव्यक्त) से सत् (व्यक्त) उत्पन्न हुआ है।
२२२. कुछ लोगो का कथन है कि इन्द्र आदित्य से उत्पन्न हुए हैं, परन्तु मैं
जानता हूँ कि वे ओजस् (बल) से उत्पन्न हुए हैं। २२३. विश्वकर्मा दिव्य आत्मा के आँख, मुख, बाहु और चरण सभी ओर
होते हैं । अर्थात् उनकी ओर से होने वाला निर्माण सर्वाङ्गीण होता है,
एकागी नही। २२४. सत्य से ही पृथ्वी अघर मे ठहरी हुई है। अथवा सत्य से ही पृथ्वी
धान्य एव सस्य आदि से फलती है। २२५. ऋत (सत्य अथवा कर्म) से ही आदित्य (सूर्य आदि देव) अपना
अस्तित्त्व बनाये हुए हैं। २२६. दिन का सूचक सूर्य प्रतिदिन प्रातःकाल नया-नया होकर जन्म लेता
है, उदय होता है।
२२७. हे कन्ये, पतिगृह मे जाओ और गृहपत्नी (गृहस्वामिनी) बनो। पति
की आज्ञा मे रहते हुए पतिगृह पर यथोचित शासन करो।
योगेन धर्मेण भूमिरुत्तभिता उद्धृता फलिता भवतीत्यर्थः, असति सत्ये भूम्या सस्यादयो न फलन्ति । ६. गृहस्वामिनी भवसि । १०. पत्युर्वशे वर्तमाना । ११ पतिगृहम् ।