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यजुर्वेद को सूक्तियां
नवासी ७६ प्रजापति ने सत्यासत्य को देखकर उन्हे विचारपूर्वक पृथक-पृथक्
स्थापित किया ! असत्य मे अश्रद्धा को और सत्य मे श्रद्धा को स्थापित
किया। ८०. मेरा शिर श्रीसंपन्न हो, मेरा मुख यशस्वी हो, मेरे केश और श्मश्रु
कान्तिमान हो ! मेरे दीप्यमान प्राण अमृत के समान हो, मेरे नेत्र
ज्योतिर्मय हो, मेरे श्रोत्र विविध रूप से सुशोभित हो । ८१. मेरी जिह्वा कल्याणमयी हो, मेरी वाणी महिमामयी हो, मेरा मन
प्रदीप्त साहसी हो, और मेरा साहस स्वराट् हो, स्वय शोभायमान हो,
उसे कोई खण्डित न कर सके । ८२. मेरे दोनो बाहु और इन्द्रियां बलसहित हो, कार्यक्षम हों । मेरे दोनो हाथ
भी कुशल हो, मजबूत हो । मेरी आत्मा और हृदय सदैव जनता को
दुःखो से मुक्त करने में लगे रहे। ८३. मैं अपनी जघाओ और पैरो से अर्थात् शरीर के सब अगो से धर्मरूप
हूँ । अत. मैं अपनी प्रजा मे धर्म से प्रतिष्ठित राजा हूँ।
८४. मैंने जागृत अवस्था मे अथवा सोते हुए जो पाप किए हैं, उन सब पापो
से सूर्य (ज्योतिर्मय महापुरुष) मुझे भली प्रकार मुक्त करें।
५५. मैं विश्वकल्याणकारी ईश्वरीय ज्योति हो ।
५६. जहाँ ब्राह्मण और क्षत्रिय समान मन वाले होकर अवियुक्त भाव से एक
साथ चलते हैं, कम करते हैं। और जहाँ देवगण अग्नि (आध्यात्मिक तेज) के साथ निवास करते हैं, मैं उस पवित्र एवं प्रज्ञानरूप दिव्य लोक (जीवन) को प्राप्त करूं।
६ विश्वेभ्यो नरेभ्यो हितो वैश्वानर. परमात्मा, तद्रूप ज्योति ब्रह्मव भूयासम्-महीधर।