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यजुर्वेद को सूक्तियां
निन्यानवे ११८. जो विशेष रूप से ज्ञान का जनक है, चेतना का केन्द्र है, धैर्य रूप है,
प्रजा के अन्दर को एक ज्योति है, मात्मरूप होने से अमृत है, किंबहुना, जिस के बिना कोई भी कार्य किया जाना सभव ही नहीं है, वह मेरा मन पवित्र सकल्पो से युक्त हो ।
११६ जिस मन मे प्रजाओ का सब ज्ञान ओत-प्रोत है, निहित है, वह मेरा
मन पवित्र सकल्पो से युक्त हो।
१२०. कुशल सारथी जैसे वेगवान् घोडो को चाबुक मार कर दौडाता है, और
समय पर लगाम खोचकर उन्हें निययित भी करता है, वैसे ही जो मन मनुष्यादि सब प्राणियो को कमं मे प्रवृत्त भी करता है और नियत्रित भी, और जो मन जरा से रहित है, अत्यत वेग वाला है, हृदय
में स्थित है, मेरा वह मन कल्याणकारी विचारो से युक्त हो । १२१ भग (ज्ञान वैराग्य आदि आत्मगुण) हो भगवान् है ।
१२२. निष्काम, जागरण शील-अप्रमत्त, मेधावी साधक ही आत्मा के शुद्ध
स्वरूप को प्रदीप्त करते हैं। १२३. शरीर मे स्थित सप्तर्षि (पांच इन्द्रियां, मन और बुद्धि) सदा अप्रमत्त
भाव से हमारी रक्षा करते हैं। १२४. स्वर्ग, अन्तरिक्ष और पृथिवी शान्तिरूप हो । जल, औषधि, वनस्पति,
विश्वेदेव (समस्त देवगण), पर ब्रह्म और सब ससार शान्तिरूप हो । जो स्वय साक्षात् स्वरूपत शान्ति है, वह भी मेरे लिए शान्ति करने वाली हो।
निष्कामा--महीधर। ७. अप्रमत्ता ज्ञानकर्मसु समुच्चयकारिण -महीधर । ८ सम्यग्दीपयन्ति....निर्मलीकुर्वन्ति-महीधर । ६ ऋग्वेद १।२२।२१, सामवेद १८२।५।५ । १० सप्तऋषय -प्राणा त्वक्वक्षु श्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धिलक्षणा - महीधर । '१ द सदाकालम्-उन्वट ।