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सामवेद की सूक्तिया
एक सौ सात
१५. विश्व के चक्षु . स्वरूप सर्वप्रकाशक सूर्य का आगमन देखकर तारागण रात्रि के साथ वैसे ही छुप जाते है, जैसे सूर्योदय होने पर चोर ।
१६ सत्य (-भाषी) की जिह्वा से अतिमोहक मधुरस भरता है ।
१७. हे वीर । तुम्हे देवता या मनुष्य कोई भी दान देने से रोकने वाला नही है, जैसे कि हप्त वृषभ को घास खाने से कोई भी नही रोक सकता ।
१८. सदाचारी विद्वानो से द्व ेष करने वालो का संग न करो ।
१६ शीघ्रकर्मा बुद्धिमान् पुरुष अपनी तीक्ष्ण बुद्धि ( अथवा कर्मशक्ति) की सहायता से ऐश्वर्य प्राप्त करता है ।
२०. धनदातामो की निन्दा करना ठीक नही है । दानदाता की प्रशंसा न करने वाले को धन नही मिलता है ।
२१. हे विश्वद्रष्टा । अपने रस के प्रवाह से आकाश और पृथ्वी दोनो को भर दो, जैसे कि सूर्य अपनी प्रकाशमान रश्मियो (किरणो ) से दिन को भर देता है ।
२२. मेधावी विद्वान् ही कर्म का साधक होता है ।
२३. अग्नि ज्योति है और ज्योति अग्नि है । इन्द्र ज्योति है, और ज्योति इन्द्र है । सूर्य ज्योति है, और ज्योति सूर्य है । अर्थात् शक्ति और शक्तिमान में अभेद है ।
११. सहायभूतया । १२. घनदासृषु । १३. हिंसन्त धनदातृविषयकस्तुत्यादिकर्माणि कुर्वन्तम् । १४. रयिधंन न नशत्, न व्याप्नोति । १५. विश्वस्य द्रष्टः ! १६. द्यावापृथिव्योः । १७. अहानि उपलक्ष्यन्ते ।
* उत्तराचिक के अंक क्रमशः अध्याय, खण्ड, सूक्त और मंत्र के सूचक हैं |