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सत्तासी
यजुर्वेद की सूक्तिया ७१ हे देव, तुम तेज.स्वरूप हो, अतः मुझे तेज प्रदान करो । तुम वीर्य
(वीरकर्म, वीरता) स्वरूप हो, प्रत' मुझे वीर्य प्रदान करो। तुम बल (शक्ति) स्वरूप हो, अत मुझे बल प्रदान करो। तुम ओजः स्वरूप (कान्तिस्वरूप) हो, अत. मुझे ओजस् प्रदान करो। तुम मन्यु (मानसिक उत्साह) स्वरूप हो, मत मुझे मन्यु प्रदान करो।
तुम सह (शाति, सहिष्णुता) स्वरूप हो, अत मुझे सह प्रदान करो। ७२ वाणी ज्ञान की अधिष्ठात्री होने से सरस्वती है, और उपदेश के द्वारा
समाज के विकृत आचार-विचाररुप रोगो को दूर करने के लिए
वैद्य है। ७३. पशुता के विचारो से पशुत्व प्राप्त होता है।
७४. भोजन से भोजन मिलता है और आशीर्वाद से आशीर्वाद । अर्थात् जो
दूसरो को भोजन एव आशीर्वाद देता हैं, बदले में उसको भी भोजन एव
आशीर्वाद प्राप्त होता है । ७५ व्रत (सत्कर्म के अनुष्ठान) से दीक्षा (योग्यता) प्राप्त होती है, दीक्षा से
दक्षिणा (पूजा प्रतिष्ठा ऐश्वर्य) प्राप्त होती है । दक्षिणा से श्रद्धा प्राप्त
होती है और श्रद्धा से सत्य (ज्ञान, अनन्त ब्रह्म) की प्राप्ति होती है। ७६ दुर्जनरूपी दुष्ट कुत्तो को दूर से भगा दो।
७७ देव जन (दिव्यपुरुष) मुझे पवित्र करें, मन (चिन्तन) से सुसगत धी
(बुद्धि अथवा कम) मुझे पवित्र करे । विश्व के सभी प्राणी मुझे पवित्र करें अर्थात् मेरे सत्कर्म मे सहयोगी बनें ।
७८ धीर पुरुष ही रत्न (कर्म का सुन्दर फल) पाते हैं।
सत्य धीयते यस्या सा श्रद्धा आस्तिक्यबुद्धि -महीधर । ३ शुना चात्र दुर्जनप्रभृतयो लक्ष्यन्ते-उव्वद ।