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यजुर्वेद की सूक्तियां
पिच्यासी च्छिन्न रूप से बहती हुई, कुतार्किकरूप शत्रुओ द्वारा अवरुद्ध एव खण्डित नही की जा सकती। मैं इन वाणियो के मध्य मे ज्योतिर्मान
अग्नि (तेज) को सब ओर देखता हूँ। ६४. अन्तहृदय मे चिन्तन से पवित्र हुई वाणियां ही नदियो के समान अवि
च्छिन्न धारा से भली भांति प्रवाहित होती हैं ।
६५. सत्य, श्रद्धा, यह स्थावर जगमरूप विश्व एवं ऐश्वर्य, दीप्ति, क्रीड़ा एवं
हपं, भूत एव भविष्य के सुख, सुभाषित एवं सुकृत-सब कुछ मुझे यज्ञ (सत्कम) से प्राप्त हो।
६६. यज्ञ (लोकहितकारी श्रेष्ठकर्म) के प्रभाव से हमे परमज्योतिरूप
ईश्वर की प्राप्ति हो, स्वर्गीय सुखो की प्राप्ति हो।
६७ मैं अन्न से समृद्ध होकर सब दिशाओ को विजय कर सकता हूँ।
६८ मेरे लिए सभी दिशा एवं प्रदिशाएं रस देन वाली हो ।
६६. यह मनरूपी गन्धवं प्रजापति और विश्वकर्मा है-अर्थात् प्रजा का पालन
करने वाला एवं विश्व के सब कार्य करने में समर्थ है। ७०. हे देव । हमारे ब्राह्मणो (ज्ञानयोगियो) को तेजस्वी करो | हमारे
क्षत्रियो (कर्मयोगियो) को तेजस्वी करो। हमारे वैश्यो (एक दूसरे के सहयोगी व्यवसायी जनो) को तेजस्वी करो और हमारे शूद्रो (सेवाव्रती लोगो) को भी तेजस्वी करो और मुझ मे भी विश्व के सब तेजो से बढकर सदा अविच्छिन्न रहने वाले दिव्य तेज का प्राधान करो।
प्रकाश. परमात्मा-महीधर । ७. वाजपतिः समृद्धान्न. सन्-महीघर । ८ पयस्वत्यो रसयुता --महीधर । ६. अनुत्सन्नधर्माणो यथावय दीप्त्या भवेम तथा कुर्वित्याशय.-उव्वट ।