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ऋग्वेद को सूक्तिया
तिरेसठ २७६. जिस शकट मे एक ही चक्र हो, वह कभी अपने गन्तव्य स्थान पर नही
पहुँच सकता। २७७. द्वाप से दूर रहिए, सब को अभय बनाइए ।
२७८. हे पवन ! तू हम सब को सुख शान्ति प्रदान कर, हमारे विकारो को दूर
कर। तेरे मे सभी भेपज (ओपध) समाये हुए हैं, तू देवो का दूत है,
जो सतत चलता रहता है। २७६ जल सब रोगो की एक मात्र दवा है । अथवा सब प्राणियो के लिए
औषध स्वरूप है। २८०. जिह्वा वाणी (शब्द) के आगे-आगे चलती है ।
२८१. मैं (गृहपत्नी) उत्तम हूँ, और भविष्य मे उत्तमो से भी और अधिक उत्तम
होऊ गी। २८२ तुम क्यो नही गांव मे जाने का मार्ग पूछते ? क्या तुम्हे यहां (वन मे)
अकेले रहने मे डर नहीं लगता ? २८३. अरण्यानी (वन) अपने यहां रहे किसी की हिंसा नहीं करती । यदि
व्याघ्र आदि हिंसक प्राणी न हो तो फिर कोई डर नही है । अरण्यानी
मे मनुष्य सुस्वादु फल खाकर अच्छी तरह जीवन गुजार सकता है । २८४. कस्तूरी आदि सुगन्धित द्रव्य के समान अरण्यानी का सोरम है, वहाँ
कृषि के विना भी कन्द, मूल, फल आदि पर्याप्त भोजन मिल जाता है । अरण्यानी मृगो की माता है, मैं अरण्यानी का मुक्त मन से अभिनन्दन
करता हूँ। • २८५, श्रद्धा से ब्रह्म तेज प्रज्ज्वलित होता है, और श्रद्धा से ही हवि (दानादि)
अर्पण किया जाता है।
स्योच्चारणाय पुरतो व्याप्रियते इत्यर्थ । ६. द्वितीयार्थे षष्ठी । ७. यथेच्छम् । ८, निगच्छति वर्तते ।