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यजुर्वेद को सूक्तिया
तिहत्तर ६. हम दानादि दिव्य गुणो से समृद्ध सवितादेव के महान् वीर्य एव तेज
का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को सत्कर्मों के निमित्त प्रेरित करे ।
७. गाँव मे रहते हुए हमने जो जनता के उत्पीडन का पाप किया है, वन मे
रहते हुए पशुपीडन का जो पाप किया है, सभा मे असत्य भाषण तथा महान्पुरुषो का तिरस्काररूप जो पाप किया है, इन्द्रियो द्वारा मिथ्याचरण रूप जो पाप हम से बन गया है, उस सब पाप को हम सदाचरण के द्वारा नष्ट करते हैं ।
८. जिस प्रकार पका हुआ उर्वारुक (एक प्रकार की ककडी या खीरा) स्वय
वृन्त से टूट कर गिर पडता है, उसी प्रकार हम मृत्यु के बन्धन से मुक्त
हो, अविनाशी अमृततत्व से नही । ६. तू दीक्षा और तप का साक्षात् शरीर है ।
१०. यह तेरा शरीर यज्ञ (सत्कम) के लिए है।
११. तू सत्य ज्ञान का अगाध समुद्र है। तू कृताकृत के प्रत्यवेक्षण द्वारा सभी
सत्कर्मों की उपलब्धि कर सकता है। १२. मुझे मित्र की आंखो से देखिए ।
१३. सभी सन्मार्गों के जानने वाले हे अग्रणी नेता | तू हमे ऐश्वर्य के लिए
श्रेष्ठ मार्ग से ले चल । १४. हम अपने सत्कर्म के बल से समृद्धि की हजारो-हजार शाखाओ के रूप मे
अकुरित हो ।
७. कलजभक्षणपरस्त्रीगमनादिकम्-महीघर । ८ अवपूर्वो यजिशिने वर्तते । एतत् पाप नाशयामः-उव्वट ।