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ऋग्वेद की सूक्तिया
सड़सठ २६६ मैं अपने तेज से सवको अभिभूत करने वाला हूँ। मैं विश्वकर्मा (सव
कर्म करने मे समर्थ) दिव्य तेज के साथ कर्मक्षेत्र में अवतरित हुमा हूँ। ___ २६७. उषा अपने तेज से अपनी बहन रात्रिका अधकार दूर करती है ।
२६८. हे राजन् | तुम राष्ट्र के अधिपति बनाये गये हो, तुम इस राष्ट्र के
सच्चे स्वामी बनो, तुम अविचल एव स्थिर होकर रहो । प्रजा तुम्हारे प्रति अनुरक्त रहे, तुम्हे चाहती रहे । तुम से कभी राष्ट्र का अधः पतन न हो, अमगल न हो।
२६६. यह आकाश स्थिर है, यह पृथिवी स्थिर है, पर्वत स्थिर हैं, और क्या,
यह समग्न विश्व स्थिर है। इसी प्रकार यह प्रजा की पालना करने
वाला राजा भी सदा स्थिर रहे । ३०० राष्ट्र को स्थिरता से धारण करो।
३०१. दुबुद्धि को दूर हटायो ।
३०२. मैंने देखा---गोप (भौतिक पक्ष मे सूर्य, अध्यात्मपक्ष में इन्द्रियो का
अधिष्ठाता आत्मा) का पतन नही होता। वह कभी समीप तो कभी दूर, नाना मार्गों में भ्रमण करता रहता है ।
३०३ तेजोमय तप के द्वारा ही मन, वाणी एव कर्म के ऋत अर्थात् सत्य की
उत्पत्ति होती है।
३०४ हे बलवान् अग्रणी नेता, आप हो सब को ठीक तरह से सघटित करते हो ।
४, सयुवसे-मिश्रयसि । ५. विश्वानि-सर्वाणि भूतजातानि ।