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ऋग्वेद को सूक्तिया
इकसठ २६७. मैं वाग्देवी समग्र विश्व की अधीश्वरी हूँ, और अपने उपासको को
ऐश्वयं देने वाली हूँ। मैं ज्ञान से सपन्न हूँ और यज्ञीय (लोकहित कर्मों
के) साधनो मे सर्वश्रेष्ठ हूँ। २६८. जो मुझ वाग्देवी को नही जानते, वे संसार मे क्षीण अर्थात् दीन
हीन हो जाते हैं। २६६. जो भी व्यक्ति अन्न खाता है वह मेरे (वाग्देवी) द्वारा ही खाता है
और जो भी प्रकाश पाता है वह मेरे द्वारा ही पाता है । ५७०. मैं (वाग्देवी) जिसक हती हूँ, उमे सर्वश्रेष्ठ बना देती हूँ।
२७१. मैं वाग्देवी मनुष्य के (उत्थान के लिए निरतर युद्ध (सघर्प) करती
रहती हूँ। मैं पृथिवी और आकाश मे सर्वत्र व्याप्त हूँ।
२७२. मुझ वाग् देवी की इतनी बडी महिमा है कि मैं आकाश तथा पृथ्वी की
सीमाओ को भी लांघ चुकी हूँ।
२७३ नेता हमारी विकृतियो को दूर करें।
२७४. मेरे समक्ष चारो दिशाएं (चारो दिशाओ के निवासी जन) स्वय ही
नत (विनम्र) हो जाएं। २७५. मेरे लिए आकाश अन्धकाराच्छन्न न रह कर सब ओर पूर्ण प्रकाशमान
हो जाए । पवन भी अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनुकूलगति से प्रवहमान हो !
समदः सग्रामः । ७. एना पृथिव्या. द्वितीया टोस्वेन इति इदम एनादेशः, अस्या पृथिव्या. पर.-परस्तात् । ८. स्वत. एव प्रह्वीभवन्तु । ६. तद्वासिनो जना इत्यर्थः ।