________________
ऋग्वेद को सूक्तिया
सेंतालीस
११४ दानशील मनु (मानव) को कोई पराजित नहीं कर सकता।
२१५. विश्व के ज्ञाता द्रष्टा श्रेष्ठ ज्ञानी देव (महान् आत्मा) स्थावर और
जंगम समग्र लोक के ईश्वर है ।
२१६. जैसे सत्त को शूप से परिष्कृत (शुद्ध) करते हैं, वैसे ही मेघावीजन
अपने बुद्धि बल से परिप्कृत की गई भापा को प्रस्तुत करते है । विद्वान लोग वाणी से होने वाले अभ्युदय को प्राप्त करते है, इनकी वाणी मे मगलमयी लक्ष्मी निवास करती है ।
२१७ कुछ मूढ लोग वाणी को देखकर भी देख नही पाते, सुन कर भी सुन
नही पाते । किन्तु विद्वानो के समक्ष तो वाणी अपने को स्वय ही प्रकाशित कर देती है, जैसे कि सुन्दर वस्त्रो से आवृत पत्नी पति के समक्ष अपने को अनावृत कर देती है।
२१८. जो अध्येता पुष्प एव फल से हीन शास्त्रवाणी सुनते हैं, अर्थात् अर्थबोध
किए विना शास्त्रो को केवल शब्दपाठ के रूप मे ही पढते रहते हैं, वे वध्या गाय के समान आचरण करते हैं। अर्थात् जैसे मोटी ताजी वध्या गाय अपरिचित लोगो को खूब दूध देने की भ्रान्ति पैदा कर देती है, वैसे ही शब्दपाठी अध्येता भी साधारण जनता में अपने पाहित्य
की भ्रान्ति पैदा करता है। २१६. दूसरो को णास्त्रवोध न देने वाले विद्वान की वाणी फलहीन (निष्प्रयो
मुत्पादयस्तिष्ठति, तथा पाठ प्रव्र वाणश्चरति । १२ केवलं पाठमात्रेणवश्रु तवान् । १३. अर्थ पुष्पफल, अर्थवर्जिताम् । १४. स्वार्थबोधनेन उपकारित्वात् सखिभूत वेद य. पुमान् तित्याज तत्याज परार्थविनियोगेन त्यजति । १५ भागो भजनीय.-कश्चिदर्थो नास्ति ।