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ऋग्वेद को सूक्तिया
२४८, दाता ही युद्ध मे आक्रमणकारी शत्रुओ पर विजय प्राप्त करता है ।
२४६ तप एव सदाचार के प्रभाव से निम्नस्तर के व्यक्ति भी उच्च स्थान प्राप्त कर लेते हैं ।
२५०. क्रातदर्शी मेधावी विद्वान् एक दिव्य (सत्य) तत्त्व का ही नाना वचनो से अनेकविध वर्णन करते है ।
२५१
पचपन
२५२
से सदा
विश्व के प्राणियो को स्वस्ति दो, आनन्द दो, और अन्तर्मन प्रसन्न रहो | तथा सर्वसाधारण जनता को ऐश्वर्य एव सौभाग्य प्रदान करने के लिए सदा अग्रसर रहो ।
देवो ने सब प्राणियो को यह क्षुधा नही दी है, अपितु क्षुधा के रूप मे उन्हे मृत्यु दी है । अत. जो मृत्युरूपी क्षुधा को अन्नदान से शान्त करता है, वही वस्तुत दाता है। जो विना दिये खाता है, वह भी एक दिन मृत्यु को प्राप्त होता ही है । दाता का घन कभी कम नही होता और अदानशील व्यक्ति को कही भी कोई सुखी करने वाला नही मिलता ।
२५३ जो कठोरहृदय पुरुष धन एवं अन्न से संपन्न होते हुए भी, घर पर आए अन्न को याचना करने वाले क्षुधातं दरिद्र व्यक्ति को भोजन नही देता है, अपितु उसके समक्ष स्वयं भोजन कर लेता है, उसे सुखी करने मे कोई भी समर्थ नही है !
२५४. घर पर आये अन्न की याचना करने वाले व्यक्ति को जो सद्भाव से अन्न देता है, वस्तुत. वही सच्चा दानी है । उसे यज्ञ का सपूर्ण फल
कुत्रापि न लभते । ७. आघ्रो दुर्बल. तस्मै ८. पित्व - पितृनन्नानि चक मानाय याचमानाय । ६ रफतिर्हिसार्थ, दारिद्रयेण हिसिताय । १० गृह प्रत्यागताय । ११ भोजा - दाता । १२ प्रतिग्रहीत्रे । १३ अन्न याचमानाय । १४.
चरते – गृहमागतवते ।
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