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तेतीस
ऋग्वेव की सूक्तिया १४६. घृत और मधु से भी अत्यन्त स्वादु वचन बोलिए।
१४७. जसे नव वधू वस्त्र से ढकी रहती है, वैसे ही जो यज्ञ (सत्कर्म) से ढका
रहता है, उसकी परिचर्या (देखरेख) करते हुए अश्विनी देव उसका
मगल करते हैं। १४८. महान् आत्मा युद्ध के विना भी ऐश्वयं प्राप्त कर लेते हैं।
१४६. यह अशनि (मायुध, वन) विना किसी की हिंसा किये शीघ्र स्वय ही
विनष्ट हो जाए !
१५०. दिव्य मात्मा जो चाहते है वही होता है। उनके सकल्प को कोई
ध्वस्त नही कर सकता।
१५१. हे देवताओ | तुम्हारे मे न कोई शिशु है, न कोई कुमार है । तुम सब
के सब पृथ्वी पर सदा महान् (नित्य तरुण रहते) हो ।
१५२. अपनी बुद्धि को प्रावृत (आच्छादित) न करो।
१५३ सत्य का मार्ग सुगम है ।
१५४ अपने स्तोताओ (साथियो) के लिए ही घनसग्रह करना चाहिए,
वैयक्तिक स्वार्थ के लिए नही ।
१५५. स्त्री का मन अशास्य है, अर्थात उस पर शासन करना सहज नही है।
मिनत्-हिनस्ति । ६. सर्वे यूय सवयसो नित्यतरुणा. भवथ । ७. संवारणमाच्छादनम्न छादयत इत्यर्थ ।