________________
पेतीस
ऋग्वेद को सूक्तिया १५६ नीचे की ओर देखिए, ऊपर की मोर नहीं ।
१५७ अपने पैगे को मिलाये रखो ।
१५६
१६०.
१५८. तुम्हारी ओर से किया जाने वाला जनता का रक्षण अपने मे एक
अच्छा (निष्पाप) रक्षण हो । जमे पक्षी (चिडियाएं) अपने बच्चो को सुख देने के लिए उन पर पख फैना देते हैं, वैसे ही तुम सब को सस्नेह सुख प्रदान करो। जिस प्रकार रथ को वहन करने वाले अश्व दुर्गम (ऊँचे नीचे गड्ढे वाले) प्रदेश को छोड कर चलते हैं, उसी प्रकार जीवन मे पापाचार
को छोडकर चलना चाहिए। १६१ हम पर न तो निद्रा हावी हो, और न व्यर्थ की बकवास करने वाला
निन्दक । १६२ हम सोमरस (शान्ति तथा समता रूप अमृतरस) का पान करें, ताकि
अमर हो जाए। १६३. इन्द्र (श्रप्ठ जन) का दान कल्याणकर है ।
१६४. हम सच्ची स्तुति ही करते है, झूठी नही।
१६५. देवो | पापशील हिंसक को महापाप होता है, और अहिंसक धर्मात्मा
को अतीव दिव्य श्रेय (सुकृत) की प्राप्ति होती है । १६६. इन्द्र जन्म से ही शतक्रतु है, अर्थात् बहुत अधिक कर्म करने वाला है ।